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________________ १७२ ] अध्याय छठा । पा यह जन्म सफल लखि अपनो सीकर नगर गया हि हो। ॥ १६ ॥ मंडल सार० ___ पाठकोंको इससे प्रगट होगा कि हमारे चरित्र नायक माणिक चंदजी कैसे धर्मप्रेमी, विद्याप्रेमी और गुणानुरागी थे। सेठ मोतीचंदकी स्त्री रूपमतीको फिर गर्भ रहा था । जबसे इसको यह गर्भ हुआ तबसे इसका प्रेम दान प्रेमचंदका जन्म। व धर्ममें और भी अधिक हो गया था। इसके मनमें पूजा व शास्त्र सुननेकी ही गाढ़ रुचि रहा करती थी । जब संवत १९३४ का चातुर्मास निकट आया तब इसके मनमें यह भावना हुई थी कि मुझे ईडर जाना चाहिये और वहीं मेरेको प्रसूति हो तो अच्छा है क्योंकि यहां कोई बराबर सेवा करनेवाला नहीं है- चतुरबाईके एक छोटी कन्या है और पानाचंद तथा नवलचंदकी बहुएँ बहुत छोटी हैं। रूपमती बहुत बुद्धिमती थी। इसलिये अपने पतिसे इस बारेमें पूछा मोतीचंदने भी यही उचित समझा और अपने पिता सेठ हीराचंदजीको कहा । हीराचंदजीने भी इस बातको पसन्द किया और गांधी मोतीचंदको पत्र दिया। गांधीजी स्वयं आकर रूपमतीको ईडर लेगए। श्रीषोडशकारण व श्री दशलाक्षणी पर्वमें रूपाबाईने ईडरमें खूब धर्मध्यान और कुछ दान भी किया। गर्भावस्थामें ऐसे दान धर्मकी प्रवृत्तिको देखकर सर्व बुद्धिमान यही अनुमान करने लगे कि कोई अतिधर्मात्मा बालक रूपवतीके गर्भ में आया है । यह भी एक निमित नैमित्तिक सम्बन्ध है कि जैसा बालक गर्भमें आता है वैसी ही प्रवृत्ति माताकी हो जाती है। एक दरिद्री पापी पुत्रको गर्भ में रखनेवाली माता मिट्टीके टुकड़े खाती Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003979
Book TitleDanvir Manikchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kishandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages1016
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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