SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 198
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सन्तति लाभ। [१६७ बनवाकर एक बड़ा चित्रपट टांगते थे और उसके पीछे एक भाई खड़े होकर मुनिका पाठ करते थे। उपदेश देते थे। इस आख्यानका एक पद नीचे दिया जाता है। " कहो मुनि कौनसी करम गति आई-टेक० सेठ सेठानी पूंछत मुनिसे, सुख गया दरिद्रता आई। कहो० क्या मैंने जैनधर्म भृष्ट कीया, क्या घृतमें तेल मिलाई ॥ कहो. क्या मैंने रात्रि भोजन नहीं पाला, व्रत निंद्या झूठ मिलाई | कहो. हरदास अरहंत चरणकू वारवार बलि जाई ॥ कहो० शिवलालनीके द्वारा बार बार टोके जानेपर एक दिन धर्मचंदको लज्जा आई और यह शिवलालनीसे एकान्तमें मिलकर बोले कि हमें कुछ धर्मकी बात बतावे जिससे मुझे रुचि हो । तत्र शिवलालजीने कहा कि जो पुस्तक हमने तुम्हारे पिताको दी थी व जिसमें दशलाक्षणी व अष्टान्हिका आदि पूजन भाषा द्यानतराय कृत हैं, उसे ले आओ। इस पुस्तकको धर्मचंदजी पहचानते थे क्योंकि दशलाक्षणीके दिनोंमें उस पोथीके द्वारा इनके पिता गावनाकर पूजन पढ़ते थे और यह खड़े हुए द्रव्य चढ़ाते थे। उस समय पहले २ द्यानतराय कृत पूजनोंका प्रचार इसी पोथीसे हुआ । धर्मचंदजी उस पुस्तकको लाए । शिवलालजीने उसमेंसे नीचे लिखी तीन गाथाएं बड़ी कठिनतासे धर्मचंदजीको कंठ कराई और उनका मतलब समझाया गाथा गइ इंदियं च काये । जोये बेये कषाय णाणेय संजम दंसण लेस्सा । भविया सम्मत्त सण्णि आहारे ॥१॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003979
Book TitleDanvir Manikchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kishandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages1016
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy