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अध्याय छठा ।
गुणजीवा पजत्ति । पाणा सण्णाय मग्गणा ऊये । उवऊगो विय कमसो । वीसंतु परूवणा भाणया ॥ २ ॥ झाणाविय पच्चाविय जाय कुलकोड़ि संजुया सव्वे ।।
गाहा तियेण भणिया कमेण चौवीस ठाणाणि ॥ ३ ॥
भावार्थ-गति ४, इंद्रिय ५, काय ६, योग १५, वेद ३, कषाय २५, ज्ञान ८, संयम ७, दर्शन ४, लेश्या ६, भव्य २, सम्यक्त ६, संज्ञी २, आहारक २, गुणस्थान १४, जीवसमास १४, पर्याप्ति ६, प्राण १०, संज्ञा ४, उपयोग १२, यह वीस प्ररूपणा कही हैं । तथा ध्यान १६; प्रत्यय अर्थात् आश्रव ५७; जाति ८४ लक्ष; कुलकोड़ १९९॥ इन चारोंको मिलाकर २४ स्थान क्रमसे जानने चाहिये । वास्तवमें इन गाथाओंके उलझावमें डालकर उसके सुलझानेके लिये जो परिश्रम करेगा वह जिनवाणीके रहस्यको जान जायगा। पं० शिवलाल बड़े बुद्धिमान और परोपकारी थे जिन्होंने धर्मचंदके साथ बड़ा उपकार किया। इन गाथाओंको कंठकर अब यह गति आदिका विशेष हाल जाननेके लिये भाषा शास्त्रोंको देखने लगे । इनको शौक इतना बढ़ा कि ये सजोतमें अपनी अनानकी दुकान पर पुस्तक रखते, सौदा देते. २ जब छुट्टी पाते तब वांचते और उसमेंसे एक कापी पर नोट कर लेते थे। इस तरह यह अपनी स्त्रीके साथ सजोतमें धर्म सेवन करते रहते थे। पिताजीका देहान्त हो चुका था, सो इस धर्म विद्या सीखनेकी रुचिके दो वर्ष पीछे ही अंकलेश्वरमें यह उत्सव हुआ था । इस महा पूजाके कार्यमें धर्मचंद मुख्य भाग लेते थे और महाचंदजीसे बहुत हित रखते थे। उनकी भले प्रकार वैय्यावृत्त करते थे। एक दिन
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