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________________ १६४ ] अध्याय छठा । इनके पद भी बड़े ही वैराग्यवर्द्धक व आध्यात्मिक हैं। कलकत्तेके ८४ वर्षके वृद्ध पंडित अर्जुनलालजी इनके एक भननको कभी २ कहा करते है जिसकी प्रारंभकी कड़ी यह है। "सुन अताया रे रवि वद्दल छाया रे त्यूं ही कर्म छिपाया मैला हो रह्या रे । तू सिद्ध सरूपी रे नित अचल अरूपी रे जड़ पुद्गल रूपी मांही रमि रह्या रे, उस समय इनके पास केवल एक लंगोट और एक चद्दरकी ही परिग्रह थी। मोरपिच्छिका तथा कमंडल था। दिनमें केवल एक दफे भोजन करते थे तथा उस चातुर्मासमें केवल ४ वस्तु ही रक्खीं थीं। गेहूं, इमली, लालमिरच और सूखी सांगड़ीका साग; और सर्वरसोंका त्याग कर दिया था। इतना होनेपर भी विना किसी शास्त्रको रक्खे हुए व्याख्यान देते हुए इतनी ज़ोरके गंभीर शब्द कहते थे कि बहुत दृरतक आवाज़ जाती थी। इनको किसी भी सवारीपर चढ़नेका त्याग था । चातुर्मासके बाद यह अंकलेश्वरसे पैदल चलनेकी यहाँतक प्रशंसा प्रसिद्ध है कि एक दफे इनको अंकलेश्वरसे श्री कुंथलगिरी प्रतिष्ठाके अवसरपर जाना था तब वहाँपर इनके शिष्य अमरेन्द्रकीर्ति तो रेलके द्वारा कुंथलगिरी गए और यह पैदल ही ठीक मितीपर वहाँ पहुंच गए थे। त्यागी बुध महाचंद्रनीने त्रिलोकसार पूजा बहुत ही मनोहर छन्दोंमें बनाई है । अंकलेश्वरके चातुर्मासमें आपने श्रावकको उपदेश देकर इस बृहत् पूजन करानेके समारंभको कराया जिसका महूर्त वैशाख सुदी ३ का पड़ा । १५ दिनका पूजन विधान हुआ। नगरके बाहर पारसीबाड़ेके नाकेपर खेतकी वाडीमें एक बड़ा भारी मंडप बांधा गया था जिसमें एक बड़े विस्तारके साथ चावलोंसे तीन लोकका Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003979
Book TitleDanvir Manikchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kishandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages1016
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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