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________________ सन्तति लाभ । [ १६३ इनका बनाया हुआ एक लघु जैनेन्द्र व्याकरण है। परताबगढ़ राज्य मालवामें नये दिगम्बर जैन मंदिरजीके भंडारमें इस व्याकरणके ३० पत्रे हमें देखनेको प्राप्त हुए, पूर्ण नहीं मिला । अंकलेश्वरमें किसीके पास पूर्ण है ऐसा सुनते हैं। इसके ५००० श्लोक हैं ऐसा मालूम हुआ है। प्रारंभमें कर्ताने इस भांति प्रतिज्ञा की है। " महावृत्ति शुंभत्सकलवुधपूज्यां सुखकरौं । विलौक्योद्यद् , ज्ञान प्रभुविभयनंदी प्रविहिताम् । अनेकैः सच्छन्दैर्धेमविगतकैः सदृढ़ भूतां ? प्रकुर्वेऽहम् तनुमति महाचन्द्र विबुधः । इसका भाव यही है कि जैनेन्द्र महावृत्तिको देखकर मैं यह वृत्ति लिखता हूँ। अनेकांतासिद्धिः-सूत्रकी व्याख्या इस तरह की है:" प्रकृत्यादि विभागेन अस्तित्वनास्तित्वनित्यत्वानित्यत्वसामान्यासामान्याधिकरण्य विशेषणविशेष्यादिक शब्दानां, सिद्धिरनेका: स्वभावो भवेत् । पृष्ठ ३० वें में है कृष्णश्चकंबलश्च कृष्णकंबलः” यहाँ समासका वर्णन है। इनको बुध महाचंद्र कहते हैं। इन्होंने हिन्दी भाषामें बहुतसे पद व सामायिक पाठ बनाया है जो अति प्रसिद्ध है जिसकी प्रारंभित कड़ी है काल अनंत भ्रम्यो जगमें सहिये दुःख भारी, जन्म मरण नित किये पापको है अधिकारी । कोड़ि भवांतर मांहि मिलन दुर्लभ सामायिक, धन्य आज मैं भयो योग मिलियो सुखदायक । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003979
Book TitleDanvir Manikchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kishandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages1016
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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