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________________ १६०] अध्याय छठा । बम्बईसे बिलायत माल भेजनेवालोंमें दूसरे देशी व्यापारी सेठ माणिकचंद पानाचंद हुए। प्रथम पारसलमें पहले एक पारसल भेजा उसपर विलायतघाटा। वालोंने बहुत कमती दामोंकी मांग की। इस को देखकर पानाचंद चित्तमें बहुत नाराज़ हुए, पर विलायतवालोंकी जवाहरातके खरीदनेमें सदा ही यह आदत रहती है कि वे पहिले बहुत कम दाम देते हैं फिर धीरे २ बढ़ते हैं, इनके इनकार करनेपर थोड़ा २ दाम बढ़ाकर आफर आया। पानाचंदकी यह आदत नहीं थी कि किसी सोदेमें इतनी देर लगाई जाय। अब भी लागतमें नुकसान ही होता था। पानाचंदने माणिकचंद और नवलचंदको कहा कि विलायतवाले माल पहचानना नहीं जानते हैं। हमने तुम्हारे कहनेसे वहाँ माल भेजा नहीं तो अब तक हम उसमें बहुत कुछ नफा कर लेते, अब तो हम ज्यादा न ठहरकर घाटेसे ही बेचे डालते हैं और आगामी हम माल भेजना पसन्द नहीं करते । दोनों भाइयोंने बहुत समझाया भी कि अभी आप ठहरें, थोड़े ही दिनों में अच्छा ओफर आएगा पर पानाचंदजी झुंझला गए, इस तरह इन्होंने पहिले पारसलमें घाटा सहा ।। कुछ दिन बाद माणिकचंद और नवलचंदने सलाह की कि यह बात तो ठीक नहीं हुई कि हमारी दूसरे पारसलमें दुगना सलाहसे विलायतके व्यापारमें घाटा हो । मुनाफा। हमें फिर भी साहस करना चाहिये और देखना चाहिये कि क्यों नहीं नफा होता है। साकरचन्द लालभाईने तो विलायतके व्यापारमें अच्छी सफलता पाई Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003979
Book TitleDanvir Manikchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kishandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages1016
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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