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________________ सन्तति लाभ । [१५९ भारतके राजा महाराजा धनाढयोंके आभूषण पहननेका वर्णन किया तबसे वहाके लोगोंमें जवाहरात खरीदनेका जो शौक थोड़ा था वह बहुत ही बढ़ गया । बम्बईमें एक पारसी व्यापारी सेठ फरामजी एण्ड सन्सकी कम्पनी है । इन्होंने पहले पहल विलायके व्यापारियोंको जवाहरात भिनवानेका उद्योग किया। बम्बई में एक जौहरी व्यापारी सेठ साकरचंद लालभाई श्वे. जैनी हैं, सबसे पहली इन्हींके मालको फरामनी कम्पनीने विलायत भेजना शुरू किया। माणिकचंदनी सेठ फरामजीसे मिले और विलायत किस तरह माल भेनना उसका सर्व कायदा जानकर अपने भाई पानाचंद और नवलचंदसे कहा । इस समय मोतीचन्द बीमार थे । इनको भगंदरका रोग हो गया था जिससे दूकान पर बहुत कम आते जाते थे। पानाचंढने कहा कि जब हमारा व्यापार यहीं खूब चमक रहा है तत्र हमें इतनी दूर अपना माल भेजनेकी क्या जरूरत है ? इतनेमें नवलचंद साहस करके बोले कि भाई, व्यापार करनेमें हमें संकोच नहीं करना चाहिये, यहाँ तो हमें थोड़ासा ही लाभ मिलता हैं पर विलायतमें अभी ही मालकी विक्री शुरू हुई. है, वहां शाहज़ादेके लौटनेसे नया २ शौक बढ़ा है, तथा अभी इस बाज़ारमें केवल एक ही व्यापारी माल भेनते हैं वहीं दुगने तिगने हो जानेमें कोई संदेह नहीं है इससे विलायतके साथ व्यापार अवश्य शुरू करना चाहिये। माणिकचंदनीने भी इस बातका समर्थन किया, पानाचंदनी चुप हो रहे । तय हो गया कि फरामजी कम्पनीके मारफत माल भेजा जाय। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003979
Book TitleDanvir Manikchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kishandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages1016
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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