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________________ युवावस्था और गृहस्थाश्रम | [ १५५ मिलती हैं जिससे हृदय बड़ी भारी चिन्ता और खेदमें पड़ जाता है । पर जहाँ सुमति व एकताका वास है वहाँ घरमें पहुंचते ही स्त्रियोंके मुख पर प्रफुल्लता दीखती है । जब पति अपनी पत्नी से मिलता है मिष्ट और प्यारकी भरी वार्तालापसे चित्त खिल जाता है । उसकी बाहर की सारी थकावट दूर हो जाती है । यद्यपि शुभ व साताकारी सम्बन्धकी प्राप्तिमें अंतरंग पुण्यका उदय निमित्त कारण है तौभी बाह्य पुरुषाथकी भी आवश्यकता है क्योंकि अंतरंग पुण्योदय होने पर भी धनकी प्राप्ति में बाह्य कारण व्यापारादिका निमित्त मिलाना ही पड़ता है । इसके सिवाय श्री समन्तभद्राचार्य्यने भी दैव अर्थात् पूर्वपुण्यके उदय और पुरुषार्थके सम्बन्धमें एकान्त पक्षका निराकरण करते हुए यही कहा है— अबुद्धिपूर्वीपेक्षायां इष्टानिष्टं स्वदैवतः । बुद्धिपूर्वपेक्षायां इष्टानिष्टं स्वपैौरुषात् ॥ अर्थात- जो कोई कार्य अबुद्धि पूर्वक अर्थात् अपनी बुद्धिके विना लगाए अकस्मात् होता है जिससे अपना इष्ट या अनिष्ट हो, जैसे बैठे २ अपने ऊपर मकानका गिर पड़ना वह कार्य अपने पूर्व कृत कर्मके उदयकी मुख्यतासे होता है पर जो बुद्धि पूर्वक कार्य होते हैं जैसे धनागम, भोजनपान उनमें अपने इष्ट या अनिष्ट होने में मुख्यता अपने पौरुषकी है यद्यपि इसमें भी सिद्धिका होना अंतरंग पुण्यकर्मका उदय है परंतु पुरुषार्थ मुख्य इसलिये है कि यदि उद्योग न होता तो वह पुण्य कर्म यों ही झड़ जाता इसलिये पुरु- पूर्व पुण्यका उदय । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003979
Book TitleDanvir Manikchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kishandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages1016
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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