________________
१५६ ]
अध्याय पाँचवाँ।
षको तो सदा पुरुषार्थी ही रहना ही चाहिये । सेठ हीराचंदका सन्तोष और चारों भाइयोंका अटूट परिश्रम ही इस उन्नतिमें मुख्य कारण हुआ है। यद्यपि अंतरंग पुण्य कर्मका भी उदय है पर जैन सिद्धान्तानुसार प्रायः बाह्यनिमित्तके न होने पर कर्म विना रस दिखलाए यों भी झड़ जाता हैं। जैसे किसीको भगवत् भननमें २ घंटे लगे उसको उस समय किसी बातकी असाता नहीं है। उस वक्त मन्द असाता वेदनी कर्म अपना विना रस दिये ही झड़ रहा है। युवावस्था व गृहस्थाश्रमके सुख भोगते हुए चारों भाई अपने पूज्य पिताका बहुत ही भक्तिसे सन्मान करते हुए रहने लगे और दिन पर दिन व्यापार वृद्धि करके धन द्वारा अपने ऐश्वर्यको बढ़ाने लगे।
६.
N
DORE
ARS.
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org