________________
युवावस्था और गृहस्थाश्रम |
[ १५३
पधारे । मुरणी छोटासा कसबा है । बम्बईवाले व्यापारियोंका ठाठवाट पहनाव उढ़ाव व वारातका उत्सव देखनेके लिये भासपास ग्रामोंके इतनेलोग आगये थे कि कई दिन तक टेंमुरणीमें एक बड़ाभारी मेलासा होगया था और गरीबोंको भोजनादिसे भी तृप्त किया था। विधिके साथ लग्न होकर सेठ नवलचंद नवोढ़ा प्रसन्न कुमरी के साथ बिदा होकर अति प्रसन्नतासे सर्व संघसहित बम्बई और जैसे और तीनों भाई सपत्नीक गृहीधर्ममें लीन थे ऐसे यह भी लीन होगए ।
आए
अब सेठ हीराचंद चारों ही पुत्रों का विवाहकर और उन्हें व्यापार और गृहस्थधर्म साधनमें तल्लीन कर अपने
सेठ हीराचंदजीको कर्तव्यको साधन कर वहुत ही संतुष्ट हुए संतोष । और जब कभी यह अपनी उस सूरत नगरकी
उस अवस्थाका मिलान जब कि इनकी स्त्रीका देहान्त हुआ था इस समयसे करते थे तो इनको अपने व अपने पुत्रोंके पुण्योदय पर बहुत ही तृप्तता होती थी। और यही मनमें आता था कि यद्यपि पूर्व्व जन्मकृत पुण्यकर्म्मका उदय ही लक्ष्मी, कीर्ति आदि सामग्रियोंके संयोग करानेमें कारण है तौभी इस जन्मकृत धर्मसेवन से बांधा हुआ पुण्य भी इस जन्ममें अपना उदय दे सक्ता है क्योंकि हमने अनेकवार शास्त्रोंमें सुना है कि जो कर्म्म यह जीव बांधता है उसमें स्थिति अंतमुहूर्त्त तककी पड़ सक्ती है । इससे यदि किसी पुण्य या पापकर्मकी स्थिति १० व २० वर्षकी पड़े तो इसी जन्म में उसका सर्व फल भोग लिया जाता है। इस कारण यह बात बहुत ही उचित है कि बाल्यावस्था से ही धर्मका
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org