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________________ १३२] अध्याय पाँचवाँ । मैं इसका कुछ उद्यम करना उचित नहीं समझता हूं क्योंकि मेरे पूज्य पिता मेरे हितमें पूर्ण उद्योगी हैं, इसका मुझे पूर्ण विश्वास है। वे जब उचित समझेंगे तब मुझे गृही बनावेंगे तबतक मैं अति स्वतंत्र रहता हूँ और ब्रह्मचर्यको पाल, व्यायामकर, योग्य भोजन ले, व्यापारमें उद्यमी रह तथा सदाचारसे चल अपने धर्ममें विश्वास रखता हुआ पूर्ण सुखी हो रहा हूं। हे मित्र ! वास्तवमें यह स्त्री तो शरीरके वीर्यको नष्ट करनेवाली और बहुतसी आकुलताओंमें फंसानेवाली है। हां, गृहस्थको संतानके लाभार्थ पत्नीकी आवश्यकता होती है। . मित्र भी बहुत विचारशील थे-बोले-" सेठजी ! आपके विचार बहुतही अच्छे हैं, मुझे बड़ा हीआनन्द हुआ है। असलमें ब्रह्मचर्यके समान इस मनुष्यका कोई मित्र नहीं है। परमात्माका ध्यान वही कर सकता है जो इसको अच्छी तरह पालता है। आप इसकी चिन्ता न करें । मैं जानता हूं आपके पूज्य पिता बड़े ही गंभीर विचारवाले और धर्मात्मा हैं । आपको अपने जीवनका आधार उनहीको समझकर उनमें भक्ति रखनी चाहिये । फिर मित्रने पूछा कि आजकल आपका व्यापार कैसा चलता है ? सेठ मोतीचंद ने कहा कि मेरे छोटे भाई पानाचंद और माणिकचंद व्यापारमें बहुत कुशल और भाग्यशाली है उनके निमित्तसे बाजारमें बहुत अच्छा काम चल रहा है । यद्यपि अभी लक्षपति तो हम अपनेको नहीं कह सक्ते पर सहस्रोंकी कितनी संख्या तक हम पहुँच गए हैं और पहुँचते जाते हैं। हमारे पानाचंदकी निगाह माल खरीदनेमें ऐसी सुघड़ है कि वे जिस मालको लेते हैं उसमें बहुत अच्छा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003979
Book TitleDanvir Manikchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kishandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages1016
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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