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अध्याय चौथा ।
करना चाहिये और अपने पुत्रोंको ब्रह्मचर्यके लाभ व अब्रह्मके दोष बताकर विद्या व हुनर सिखलाना चाहिये। जब वे सीख जावे
और उसके अनुसार द्रव्य पैदा करने लगे तब ही पुत्रोंकी लग्न करनी चाहिये, विवाह हो जानेपर एक तरहका बन्धन हो जाता है, जिससे नवयुवक अपनी शक्तियोंका विकाश नहीं कर सकते।
पाठकोंको यह भी जानकर आश्चर्य होगा कि इतनी उमर होनेपर भी सेठ हीराचंदनीके पुत्रों ने अपने ब्रह्मचर्यको दृढ़ रक्खा, किसी कुसंगतिमें नहीं पड़े, किसी असत् आचारको ग्रहण नहीं किया इस दशाका भी मूल कारण सेठ हीराचंदजीकी शिक्षा और दूसरा कारण लड़कपनसे दर्शन आदि धर्मकार्योका अभ्यास था, तीसरा कारण व्यायाम था, इन सर्वको डंड मुगदर आदि देशी कसरत व कुश्ती लड़ना आता था । वास्तवमें दृढ़ विश्वास और यथार्थ ज्ञान ही चारित्र सुधारके उपाय हैं। पिताकी शिक्षाके ऊपर दृढ़ प्रतीति हीने इनको योग्यमार्गी रखा और ये चारों ही सर्व तरह व्यापार कुशल होकर उन्नतिके मार्गमें अग्रगामी हो गए। पुण्योदयसे व्यापार चलने लगा, लक्ष्मी आने लगी और सुख व शांतिसे अपने पूज्य पिताके साथ निर्वाह करने लगे।
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