SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 160
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सेठमाणिकचंदकी वृद्धि | [ १२९ १२, १४, १५, १६ वर्षमें कर दी गई तब फिर उनका ध्यान पढ़नेसे हटकर धसुरालका माल उड़ानेमें व स्त्रीसे मिलनेके रूमाल में बंट जाता है । फल यह होता है कि वे विद्याका लाभ नहीं कर पाते । सेठ हीराचंद यह बात अच्छी तरह जानते थे । इसी लिये जब तक कि मेरे पुत्र जौहरीके काममें प्रवीण न होंगे तब तक मैं इनकी लग्न नहीं करूंगा चाहे जो कुछ हो यद्यपि इनकी माता नहीं है, घर में कोई रसोई बनानेवाला नहीं है तौभी मैं रसोई बनाकर खिलाऊंगा परंतु विवाहकी जल्दी तो नहीं करूंगा इसी दृढ़ प्रतिज्ञाके कारण अनेक सम्बन्धोंकी माँग आनेपर भी हीराचंदजीने अबतक किसीकी सगाई तक भी नहीं की, विवाह तो दूर ही रहै । रसोई खिलाते समय सेठ हीराचंद इनको व्यापारमें साहसयुक्त होनेकी, सदाचार से चलनेकी, व ब्रह्मचर्य्यकी रक्षाकी शिक्षा दिया करते थे । वास्तव में जब तक ऐसा उपकारी पिता नहीं होता तब तक सन्तान उद्योगी और साहसवान नहीं बन सकती । आजकल लाखों पिता अपने पुत्रोंके साथ अन्याय करते हैं, उनके छोटेसे गले में स्त्रीरूपी भारी पाषाण बांध देते हैं, वे विचारे उस भारसे कुचले लकीरके फकीर वन ज्यों त्यों चलते हैं, अपनी बुद्धिको चमत्कृत बनाने का अवसर उनके हाथसे जाता रहता है, इससे वे विचारे शारीरिक, मानसिक व धार्मिक तथा योग्य औद्योगिक उन्नतिमें बहुत पीछे रह जाते हैं इतना ही नहीं किन्तु अवनतिके गर्त में गिर जाते हैं और अपनी गुप्त शक्तियोंको प्रफुल्लित करने के उपायसे वञ्चित रह जाते हैं । आजकल के मातापिताओंको सेठ हीराचंदका दृष्टान्त ग्रहण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003979
Book TitleDanvir Manikchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kishandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages1016
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy