SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 154
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सेठ माणिकचंदकी वृद्धि । ( १२३ जिस गृहस्थ के पास धन होता है उसकी सब लौकिक जन कदर करते हैं । वे यह भय नहीं खाते हैं कि इसको हमें कुछ धन देना पड़ेगा या हमसे यह कुछ मांगेगा, किन्तु इसके विरुद्ध उन्हें यह आशा होती है कि यदि हमें कभी कुछ जरूरत होगी तो इनसे मिल जावेगा । जगत स्वार्थ बुद्धिके नातेसे ही रहता है । इसी तरह जो साधु हैं उनमें यदि आत्मज्ञान और वैराग्य होता है तो जो समझदार हैं व सन्मान करते हैं । गृही धनके विना और साधु वीतरागता सहित आत्मज्ञानके बिना नि:सार है । गृहस्थके दिलको साहसयुक्त व रौनकदार बनानेवाले उद्योग हीमें धनका आगमन है। बस, इसी कारण से अब इन चारों भाइयोंकी हर जगह खातिर होती थी । इनमें से पानाचंद और माणिकचंदके ऊपर लोग अधिक मोह करते थे, क्योंकि चारोंमें यही दो सिंह युगलकी भांति झलकते थे । चारों ही भाई धर्ममें सावधान थे । पूज्य पिताकी कृपा से चारों ही बम्बई में नित्य श्री जिनेन्द्रका दर्शन माणिकचन्दजीको व जाप देकर भोजन करते थे । इनमें सबसे ८ वर्षसे मछाल- अधिक ध्यान धर्मकी ओर माणिकचंदका था । की आदत | इनको ८ वर्षकी अवस्था से श्री मंदिरजीमें प्रछाल पूजा करनेकी इन्होंने में आकर भी जारी रक्खा । यह मंदिर में रोज़ सवेरे जाते, वहीं स्नान कर प्रछाल आदत थी । इसको गुजराती दि० जैन पूजन करते, जाप देते व कुछ पढ़कर घर आ भोजन करते थे । १५ वर्षकी उमर तक इनका स्वाध्याय बहुत मामूली था । एक दिन यह अपने १५ वें वर्ष में अर्थात् संवत् १९२३ में पूजा से Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003979
Book TitleDanvir Manikchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kishandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages1016
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy