SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 153
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ .१२२ ] अध्याय चौथा । .. प्रेम था । किसीके चित्तमें यह ईर्षा भाव नहीं था कि मैं इनसे चतुर हूं व मैं अधिक धनका हकदार हूं। चारोंमें पानाचन्द और माणिकचन्द ही बड़े चतुर और उद्योगी थ, पर यह बहुत ही समझदार, क्षमाशील और सादे मिनाजके थे । अधिक द्रव्य कमानेकी शक्ति रखनेपर भी कभी अपने मुंहसे अपनी बड़ाई नहीं करते थे । यदि इनमें मेल न होता तो इनकी इतनी प्रसिद्धि न होती । एकताके कारण बाजारमें चारों भाइयोंका कोई नाम नहीं लेता, किन्तु "भाई राम"के नामसे पुकारता था । सर्व व्यापारी इन चारोंको एक ही दिलवाले, ईमानदार, सत्यवादी और विश्वासपात्र जानने लगे । चार पांच वर्ष इस तरह मिहनत करने से इन्होंने खर्चसे अधिक रुपया पैदा कर लिया तथा मोती व जवाहरातकी पहचान भी अच्छी तरह कर ली। जब हीराचंदनी सुरतसे बम्बई आए थे तब सूरतसे बम्बई तक रेलगाड़ी नहीं थी, पर संवत् १९२१ या सन् सूरतसे बम्बई तक १८६४ ता० १ नवम्बरसे सूरतसे बम्बई तक रेल्वे। रेलगाड़ी चलने लगी। इन चारों भाइयोंमेंसे - जब किसी की इच्छा होती तब एक दो दिनके लिये सुरत चले जाते थे और वहाँके लोगोंसे व अपनी बहिन मंच्छाबाईसे मिल आते थे। अब इनके मुखोंपर कांति बढ़ गई थी, निराला जोश आरहा था। सूरतके लोग इनको उद्योगशील क कमाऊ जानकर बहुत ही प्रसन्न होते थे और जहा ये जाते थे व जिससे ये मिलते थे वह इनका सन्मान करता था। वास्तवमें देखा जावे तो व्यवहारमें द्रव्य और परमार्थमें आत्मज्ञान ही पूजे जाते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003979
Book TitleDanvir Manikchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kishandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages1016
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy