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________________ उच्च कुलमं जन्म । [८७ कृत मनोरथ भी होते हैं। पुरुषार्थी मनुष्य यदि पुण्यके मंद उदयसे धनशाली न भी होवै तौभी अपने खर्चके लायक धन अवश्य पैदा कर लेता है। वह कर्ज लेना बड़ा भारी फन्दा समझता है। आलसी मनुष्य सदा दुःखी रहता है । वह उद्योग करनेके बदलेमें बहुत दुःख व अन्यायसे अपना खर्च चलाकर अपने शरीरकी भी रक्षा करनेमें असमर्थ होता है । यदि उसके आश्रय कुटुम्ब हो तब तो बहुत ही कष्टमें आप भी रहता है और परिवारको भी रखता है। साह गुमानजी पुरुषार्थी थे । इनका मन दिनपर दिन सूरत दखनेको ललचाने लगा। इन्होंने यह भी मुना था कि आजकल बहुतसे इंग्रेज़ लोग सुरतमें आकर खूब व्यापार कर रहे हैं तथा उन्होंने अपनी सत्ता ऐसी जमाई है कि सुरतके किलेपर अंग्रेज़ोंका झंडा गड़ गया है तथा नाम मात्र मुगलोंका भी है । तथा नवाब अञ्चन जो सूरतके नवाव थे वे बिलकुल इंग्रजोंके हाथकी कठ पुतली होकर रहे और उनके पीछे जो नवाब हफीजुद्दीन हैं वे भी उन्हीके हाथमें हैं । गुमानजी जिन्दे दिलके मनुष्य थे। वारवारकी रगड़से जैसे पत्थर घिस जाता है, वारवार पाठ करनेसे जैसे विद्यार्थीको पाउ पक्का हो जाता है, वार वार जाप करनेसे जैसे भाव निर्मल हो जाते हैं, ऐसे ही पुनः पुनः सूरत नगरकी चर्चाने गुमानजीके दिलको मूरत जानेके लिये पक्का ही कर दिया । एक दिन आप श्री जिन मंदिरजीसे आकर रात्रिको बैठे २ विचारने लगे कि यहाँसे सूरतकी यात्रा हम अकेले करें कि कुटुम्बके साथ करें । मनमें यही भाव आया कि परदेशमें अकेले जानेसे अपनी अर्धाङ्गिणीके साथ जानेमें बहुत आराम है। क्योंकि भोजनादिकी चिंतासे छुड़ाकर घरहीके समान सर्व Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003979
Book TitleDanvir Manikchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kishandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages1016
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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