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उच्च कुलमें जन्म
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उसका कोई नाम भी नहीं लेता था। लोग सत्यवादी व नीति परायण थे। अपने पुण्य कर्मके उदयसे जो उपार्जन करते थे उसमें संतोष पाते हुए तृप्त थे। तौ भी निरुद्यमी नहीं थे। जिन मंदिरोंमें नरनारी धर्ममें लौलीन, विनयको प्रदर्शित करनेवाले तथा अर्हत, साधु और शास्त्रभक्तिमें तन्मय थे। श्री जिनेन्द्रके बिम्बका नित्य अभिषेक करके जलचन्दनादि अष्ट द्रव्यसे बहुत ही विनय और सार गर्भित अर्थ सूचक छन्दोंको पढ़ते हुए पूजन होता हुआ दिग्वलाई पड़ता था । पूजनमें ऐसे लीन हो जाते हुए नरनारी मालूम पड़ते थे कि उनको और किसी बातकी मानो खबर ही नहीं है। पूजनके पीछे शास्त्र सभामें सर्व ही स्त्री पुरुष विनय सहित बैठकर परोपकारी धर्मात्मा शास्त्रमरभी वक्ताके द्वारा जिनवाणीको सुनकर अपना हृदय पवित्र करते थे। शास्त्रके पीछे मंदिरजीके बाहर पात्र भक्तिके निमित्त धर्मात्मा श्रावकोंको अपना घर पवित्र करनेके लिये आमंत्रण देते थे । और भक्ति पूर्वक जघन्य व मध्यम पात्रोंको दान करके आल्हाद भावसे परम पुण्य बांधते थे। कभी २ नगरमें कोई मुनि महाराज व ऐलक, शुल्लक भी आ जाते थे उस समय श्रावक जन भोजनके समय द्वारांपेक्षण करके प्रतिग्रहण करते थे। आहार एकके यहाँ होता था पर आनन्द सब मानते थे ।
शास्त्रस्वाध्यायमें व सामायिक या जापमें दत्तचित्त श्रावक व श्राविकाएं दीख पड़ती थीं। शामको मंदिरजीमें अनेक जन ध्यानमें लीन दिखलाई देते थे । यद्यपि यह कोई व्यापारी मंडी नहीं थी तो भी लोग जब धर्म कार्य व खानपानसे निवट कर बाजारमें जाते थे तो वहां एक मन हो न्यायपूर्वक लेन देन करते थे। शामको
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