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________________ ८० जिनवाणी-विशेषाङ्क धर्मगुरु धर्माचार्य धर्मगुरु अरु धर्माचारज, उपकारी जो होवे । गृहस्थ साधु वा अरिहंतादि, ज्ञान प्रथम देवे ॥१४॥ परदेशी राजा ने केशी, ज्ञान प्रथम देवे । आनंद आदि श्रावक पहले, वीर प्रभु सेवे ॥१५॥ शतसप्त चेला अंबड श्रावक, ने आश्रय देवे। इत्यादिक ये अपने अपने, धर्म गुरु केवे ॥१६ ।। सीख शुद्ध समझ हृदय में राखी, उपकार सदा मानो। सयम गुण ना धारी जो हो, सुगुरु उन्हें जाणो ॥१७ ॥ जीवन में कई मुनि श्रावक का, ज्ञान उपकार रेवे। तो न्यारा न्यारा गुरु छोडभवी सुगुरु सदा सेवे ॥१८॥ उपसंहार इम ज्ञान ग्रही ने तत्त्व विमासी सीख हिये धरसे। 'तिहँ लोके' वह नहीं भटकेगा भवधि ने तिरसे ॥१९॥ (१) जिनेश्वर भगवंत के धर्म-तत्त्वों को सुनने-पढ़ने में जिसे अत्यंत आनंद आता है, उसके ही समकित ठहरने की प्रारंभिक पात्रता है। (२) उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययन २८ में बताया है कि जीवादि नव तत्त्वों का सम्यग् ज्ञान करके जो उन पर श्रद्धान करता है उसको समकित की प्राप्ति होती है। आवश्यक सूत्र (प्रतिक्रमण) में समकित के पाठ में समकित प्रतिज्ञा का कथन है उसमें देव, गुरु और धर्म (तत्त्व) की श्रद्धा रखने का संकल्प है। (३) उक्त आवश्यक सूत्र के पाठ में समकित की सुरक्षा एवं दृढ़ता हेतु चारे श्रद्धान भी सूचित किये हैं -(१) परमार्थ (जिनभाषित तत्त्व-सिद्धान्त) का परिचय-ज्ञान बढ़ाना (२) ऐसे ज्ञानियों की संगति कर सत्संग करना (३) कुदर्शनी–अन्य मतावलम्बी संन्यासी आदि की संगति नहीं करना (४) जो पहले जिनवचनानुयायी रह कर वर्तमान में जिनेश्वर वचनों की श्रद्धा से च्युत होकर स्वमति से कुसंगति से भटक चुका है उसकी भी संगति नहीं करना। (४) आवश्यक सूत्र, उपासकदशासूत्र में समकित के ५ प्रमुख अतिचार कहे हैं। (१) जिनेश्वर भगवंत द्वारा भाषित सूक्ष्म तत्त्व एवं गूढतम विषयों में श्रद्धा के स्थान पर शंका या अविश्वास करना शंका नामक अतिचार है। (२) वीतराग मार्ग के विपरीत मार्ग वाले एकांतवादी धर्मों के आडम्बर-प्रभाव आदि देखकर उनकी तरफ आकर्षित होना, उनके बहाव में बहते हुए प्रवृत होना कांक्षा नामक अतिचार है। (३) वीतराग मार्ग के अनुसार व्रत आदि की क्रिया करते हुए उसके फल में संदेह करना अथवा साध्वाचार के जल-मैल परीषह के आचरण रूप त्यागवृत्ति के प्रति घृणा-निंदा तिरस्कार करना विचिकित्सा नामक अतिचार है। (४) अन्य मतावलंबी विभिन्न एकान्तवादी धर्म-प्रवर्तकों की और जिनाभास लोगों की प्रशंसा-प्रचार करना ‘पर पाषंड़ प्रशंसा' अतिचार है और (५) इन एकांत धर्म-प्रवर्तकों-प्रचारकों की संगति, परिचय बढ़ाना संपर्क बढ़ाना ‘परपाषंडसंस्तव' अतिचार है। इन पांच अतिचारों और चार श्रद्धान में वीतरागमार्गी शुद्ध धर्म प्रवर्तक अन्यान्य Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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