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समकित-स्तवन
४ श्री तिलोकमुनि श्री तिलोकमनि ने समकित-स्तवन के माध्यम से समकित के विविध-पक्षों पर उपयोगी विचार प्रकट किए हैं तथा उनका बिन्दु-क्रम से विवेचन भी किया है। विवेचन करते समय उन्होंने आगमिक सन्दर्भो का भी उपयोग किया है। -सम्पादक
समकित की कुछ बात करूं ले आगम (का) आधार मनन करी जो हृदय धारे, वो होवे भव पार ।। सुणो वह समकित ने फरसे, सुणो वह समकित ने फरसे ।
जिनवाणी सणवां मां जिणरो, हिवडो अति हरषे ।।टेर ॥१॥ समकित-परिभाषा
जीवादि नव तत्त्वों ने जो, ज्ञानकरी समझे। देव गुरु शुद्ध धर्म शास्त्र जो, इण ने भी सरधे ॥२॥ परमारथ रो परिचय करके, समदृष्टि सेवे ..
कुदर्शन समकित वमियों री, संग में नहीं रेवे ॥३। समकित-अतिचार
शंका कंखा वितिगिच्छा अरु, परमत परशंसे।
परिचय पण तेनो करसी वह, समकित अतिचरसे ॥४॥ समकित-लक्षण
शत्रु मित्र पर समभावी हो, सदा वैराग्य वधसे । आरंभ परिग्रह कम करके जो, अनुकंपा करसे ॥५॥ जिनवाणी ने साची सरधे, ये पंचगुण धरसे।
समकित ने वह उज्ज्वल करके, मुक्ति मार्ग फरसे ॥६॥ सन्मार्ग
अरिहन्त देव अने सुगुरु सुसाधु, दया धर्म भाखे। कुगुरु कुदेव कुमार्ग मांहि किंचित् नहीं झांके ॥७॥
उन्मार्ग
एक गुरु जो पकड़ी बेसे, सुगुरु नहीं जांचे । पक्षाग्रह में पड़ फिर वह निज आतम ने वंचे ॥८॥
गुरु-परिचय
पंच महाव्रत समिति गुप्ति, इण ने शुद्ध फरसे। गुरु कहावण लायक वोही, भव सागर तिरसे ॥९॥
गुरु आम्नाय
गुरुआमना आगम माही, कहीं नहीं चाले। समकित धारें स्वेच्छा से ज्यों. व्रत नियम धारे ॥१०॥ परिग्रह नी पोषक या जाणों, बड़ा बड़ा रांचे। थारा म्हारां गांव घरों ने, इधर उधर खांचे ॥११॥
चर्यापरीषह
चर्या परिषह जीते साधु, भगवंत इम भाखे। अंतिम शिक्षा मांहि देखो, उत्तराध्ययन साखे ॥१२॥ गाम नगर पुर पाटण विचरे, घर घर माहि फिरे । ममता तज एकाकी रेवे, सो ही तारे तिरे ॥१३॥
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