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जिनवाणी- विशेषाङ्क
राग घटता जाता है, त्यों-त्यों वह व्यवहार से निश्चय की ओर अधिकाधिक बढ़ता जाता है । निश्चय की प्रबलता होने से सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र व्यवहार से निश्चय का रूप लेता जाता है । इसका अभिप्राय यह नहीं है कि चतुर्थ
स्थान आदि में जो सम्यग्दर्शन होता है, उसमें आत्म निश्चय, आत्म प्रबोध अथवा आत्म-स्वरूप का अनुभव नहीं रहता है। वहां भी यह सब रहता ही है । अन्यथा उसको सम्यग्दर्शन ही नहीं कहा जाएगा । अतएव यह स्पष्ट है कि जो सम्यग्दर्शन व्यवहार सम्यग्दर्शन है, उसमें भी आत्म निश्चय, और आत्मानुभूति होती ही है ।
जो व्यवहार से विमुख होकर निश्चय को प्राप्त करना चाहता है, वह विवेक-विमूढ़ व्यक्ति बीज, खेत, जल आदि के अभाव में अन्न उत्पन्न करना चाहता है । जैसे केवल निश्चय ठीक नहीं है, वैसे ही केवल व्यवहार भी उचित नहीं है । व्यवहार सम्यग्दर्शन एवं निश्चय सम्यग्दर्शन इन दोनों का समीचीन समन्वय और यथोचित-सन्तुलन अभीष्ट है ।
निष्कर्ष यह है कि निश्चय एवं व्यवहार सम्यग्दर्शन ये दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। इन दोनों का समन्वित और सन्तुलित रूप ही श्रेयस्कर है । भिन्न-भिन्न भूमिका की अपेक्षा से सम्यग्दर्शन के ये दोनों महनीय एवं मननीय रूप स्वरूप नितान्त रूप से उपादेय हैं ।
१. अध्यात्म सार, प्रबंध ६, अधिकार १८, श्लोक, १०
संदर्भ सूची
३.(क) पंचाध्यायी, द्रव्य विशेषाधिकार, श्लोक ७१५ ४. अभिधान राजेन्द्र कोष, भाग-७, पृष्ठ ४९७
(ख) अनगार धर्मामृत, १ / ९०
५. प्रश्नोत्तर श्रावकाचार, सर्ग २, श्लोक २
७. तत्त्वार्थसूत्र अध्ययन १, सूत्र २
९. पंचाशक १/३
११. पंचास्तिकाय, गाथा १०७
१३. अनगारधर्मामृत अध्ययन १, श्लोक ९३
१५. मोक्षप्राभृत, गाथा ९०
१७. पूज्यपाद, श्रावकाचार, - श्लोक १४ १९. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, गाथा ६ २१. प्रवचनसार, त प्र. २४२ २३. भगवतीसूत्र शतक १, उद्देशक ९ २५. नियमसार, गाथा ३, पद्म प्र. टीका २७. जिनसूत्र, भाग-२ गाथा ६९ २९. बृहद् द्रव्य संग्रह, गाथा, ३९ की टीका ३१.बृहद्द्रव्यसंग्रह-टीका- गाथा, ४०
३३. उपासकाध्ययन, कल्प- २१, ३५.
. पंचाध्यायी उत्तरार्ध, श्लोक ४१५ एवं ४२१ ३७. अध्यात्मसार, प्रबन्ध ६, अध्याय १८, श्लोक ३
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२. (क) पंचवस्तुक द्वार-४
(ख) उपासकाध्ययन,कल्प, २१, श्लोक, २४५
श्लोक २४५
६. उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन २८, गाथा, १५ ८. तत्त्वार्थभाष्य अध्ययन १, सूत्र २
१०. दर्शनप्राभृत, गाथा ३०
१२. योगशास्त्र, प्रकाश १, श्लोक, १७ १४. योगशास्त्र, २/२
१६. दर्शनशुद्धि सटीक ४ तत्त्व, गाथा ५ १८. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा ३१७ २०. वसुनन्दिश्रावकाचार, श्लोक ४ २२. आचारांगसूत्र १/३/३/१२५ २४. समयसार तात्पर्यवृत्ति २/८/१० २६. प्रवचनसार, तात्पर्यवृत्ति ५/६/१९ २८. पंचाध्यायी, उत्तरार्ध, गाथा २१५ ३०. अनगार धर्मामृत, अध्याय १ श्लोक ९१ ३२.अध्यात्मसारप्रबंध ६ अधिकार - १८ श्लोक ७ ३४. पंचवस्तुक द्वार, ४
३६. लाटीसंहिता, सर्ग ३, श्लोक ११ ३८. योगसार, अ.१.२,३,४
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