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________________ ७७ सम्यग्दर्शन: शास्त्रीय-विवेचन है. बीज से विराट्काय वृक्ष बन सकता है । जीव का यथार्थतः परिबोध अथवा अनुभव हो जाने पर अजीव को पहचानना सुगम हो जाता है। जीव का प्रतिपक्षी तत्त्व अजीव है। इसलिए जीव के अतिरिक्त जितने भी तत्त्व हैं, पदार्थ हैं, वे सब एक या दूसरे प्रकार से जीवतत्त्व से ही सम्बन्धित हैं। जीव की अखण्ड सत्ता के कारण ही उन सबकी सत्ता है। फलितार्थ रूप में यह कहा जा सकता है कि समग्र अध्यात्म विद्या का प्रधानतः आधार यह जीव ही है। इसलिए निश्चय सम्यग्दर्शन के लिये सर्वप्रथम आवश्यक है आत्मा के वास्तविक स्वरूप का श्रद्धान करना, उसका निश्चय करना।२७ यह जब निश्चित हो जाता है कि मैं अजीव से भिन्न चेतन-स्वरूप आत्म-तत्त्व हूं। तब आत्मा में किसी भी प्रकार का अज्ञान और मिथ्यात्व नहीं रहता है। इस विषय में विशदरूपेण चिन्तन प्राप्त होता है कि जीव और अजीव ये दो मुख्य तत्त्व हैं। जो परमार्थ से इन दोनों के स्वरूप को जान लेता है, वह अजीव नामक तत्त्व को छोड़कर जीव तत्त्व में लय हो जाता है। इससे राग एवं द्वेष का क्षय और मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है ।२८ पर में स्व बुद्धि और स्व में परबुद्धि का रहना ही बन्धन है। 'स्व' में स्व-बुद्धि एवं 'पर' में पर-बुद्धि का रहना ही भेद विज्ञान है। किन्तु आत्म-स्वरूप का विनिश्चय तब तक नहीं हो पाता है जब तक आत्मा और कर्मों के संबंध से जिन सप्तविध तत्त्वों की सृष्टि होती है उन के तथा उनके उपदेष्टा देव, गुरु और धर्म के प्रति श्रद्धान न हो, क्योंकि परम्परा से ये सभी एक या दूसरे प्रकार से आत्म-श्रद्धान के कारण हैं। इन पर श्रद्धा हुए बिना इनके द्वारा उपदिष्ट तत्त्वों या पदार्थों पर श्रद्धा नहीं हो सकती और इनके द्वारा उपदिष्ट तत्त्वों और पदार्थों पर श्रद्धान हुए बिना आत्मा की ओर उन्मुखता, अभिरुचि, परिदृढ़ रूप से श्रद्धा, उसकी पहचान एवं विनिश्चिति उत्तरोत्तर नहीं हो सकती। यही बात सम्यग्ज्ञान के विषय में जान लेनी चाहिये। वास्तव में देव, गुरु और धर्म द्वारा उपदिष्ट नव तत्त्वों के प्रति श्रद्धान एवं ज्ञान इसलिये आवश्यक है कि वह आत्म-श्रद्धान एवं आत्मज्ञान में निमित्त है। __ आत्मा में, आत्म-स्वरूप में दृढ़तम स्थिति तब तक नहीं हो पाती है, जब तक उसकी प्रवृत्ति बहिर्मुखी है। अन्तर्मुखी प्रवृत्ति तभी होती है जब वह प्रत्येक प्रवृत्ति राग-द्वेष आदि भाव से दूर रह कर करता है, वीतरागता और समता का पूर्णरूपेण ध्यान रखता है। तब प्रवृत्तिमार्ग से निवृत्ति मार्ग की ओर उस का झुकाव स्वतः हो जाता है। इसके लिये प्राथमिक भूमिका में आत्मा को मिथ्या प्रवृत्तियों से हटा कर कल्याणकारी प्रवृत्तियों में लगाया जाता है। इस समय उसका सम्यग्दर्शन सराग और व्यवहार सम्यग्दर्शन होगा। इसके लिये उसे देव, गुरु, धर्म और तत्त्वादि की श्रद्धा रूप व्यवहार-सम्यग्दर्शन का आलम्बन लेना होगा। जबतक जीव सरागी है, तब तक व्यवहार का अवलम्बन लिये बिना निश्चय की प्रतीति नहीं हो सकती। व्यवहार सम्यक्त्व से निश्चय-सम्यक्त्व सिद्ध किया जाता है। इस साध्य-साधक भाव को बतलाने के लिए व्यवहार सम्यक्त्व में निश्चय-सम्यक्त्व का वर्णन करना, अनिवार्य है, और आवश्यक है। व्यवहार सम्यक्त्व वास्तव में निश्चय सम्यग्दर्शन का बीज है। ज्यों-ज्यों जीव में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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