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________________ ७६ जिनवाणी-विशेषाङ्क किसी भी प्रमाण की गति नहीं हो सकती। इसीलिए रत्नत्रय को आत्मा के साथ अभिन्न रूप से प्रतिपादित किया जाता है। व्यवहार एवं निश्चय का समन्वय देव, गुरु और धर्म के प्रति श्रद्धान रूप जो व्यवहार सम्यग्दर्शन का लक्षण है वह तभी पूर्णतः कृतार्थ एवं परम सफल हो सकता है जब आत्मा के प्रति श्रद्धा अथवा स्वानुभूति हो, या आत्मा की अति दृढ़ प्रतीति, रुचि अथवा विश्वास हो । जब श्रद्धा को आत्मा से अभिन्न बताया गया है तब देव, गुरु तथा धर्म के प्रति केवल श्रद्धा से काम नहीं चल सकता। कोरी श्रद्धा सम्यग्दर्शन नहीं बन सकती। इसी महत्त्वपूर्ण तथ्य का समर्थन इस रूप में प्राप्त होता है। श्रद्धा, रुचि एवं प्रतीति आदि स्वानुभूति सहित होंगे, तभी वे सम्यग्दर्शन के लक्षण कहलायेंगे। वस्तुतः स्वानुभूति के बिना श्रद्धा आदि सद्गुण सम्यग्दर्शन के लक्षण नहीं कहलाते। किन्तु वे लक्षणाभास कहलाते. निश्चय सम्यग्दर्शन में कोई उपाधि नहीं है, उपचार भी नहीं है। इस दृष्टि से वह एक ही प्रकार का होता है। किन्तु व्यवहार सम्यग्दर्शन पर-पदार्थों के उपचार की अपेक्षा रखता है। इसलिये वह दो अथवा अनेक प्रकार का हो जाता है।६. इस अनन्त विश्व में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण यदि कोई तत्त्व है तो वह आत्मा ही है। आत्मा के अतिरिक्त संसार में दूसरे जितने भी तत्त्व हैं, पदार्थ है, वे सभी उसके सेवक हैं, दास हैं। उन्हें यह अधिकार नहीं है कि ये जीव रूपी राजा की आज्ञा में किसी प्रकार की विघ्न-बाधा उपस्थित कर सकें। जीव रूपी राजा को धर्मास्तिकाय यह आदेश नहीं दे सकता है कि चलिए, अतिशीघ्र चलिये, द्रुतगति से गमन कीजिये। अधर्मास्तिकाय सेवक भी यह नहीं कह सकता है कि यहां पर ठहरिये, वहां मत रुकिये। पुद्गलास्तिकाय भी सर्वदा उसके उपभोग के लिए तत्पर है। शरीर, इन्द्रियां और मन सांसारिक पदार्थ आदि सब वस्तुएं उसके श्री चरणों में उपस्थित है। आकाशास्तिकाय अवकाश देने एवं काल उसकी पर्याय-परिवर्तन के लिये प्रतिपल एवं प्रतिक्षण तत्पर रहता है। ये सब के सब जीव के प्रेरक कारण नहीं हैं, केवल तटस्थ और उदासीन कारण हैं। इस सन्दर्भ में एक और भी तथ्य ज्ञातव्य है कि आत्मा को चक्रवर्ती की महनीय उपमा आलंकारिक अपेक्षा से प्रदान की गई है। जीव तो चक्रवर्ती से भी कई गुना बढ़ कर तीन लोक का नाथ एवं त्रिलोक-पूज्य बन सकता है। इसमें इतनी अधिक क्षमता है, सामर्थ्य और शक्ति संनिहित है कि वह चाहे तो सर्वज्ञाता, सर्वद्रष्टा, अरिहन्त, सिद्ध, और बुद्ध बन सकता है । वह कर्म-जाल से सर्वथा उन्मुक्त बन सकता है। चक्रवर्ती तो केवल षट् खण्ड का ही अधिपति बनता है। छह खण्ड के बाहर एक अणु पर भी उसका शासन नहीं चल सकता। किन्तु जीव तो अनन्त-शक्ति प्रगट करके तीन लोक का अधिपति एवं परम श्रद्धेय बन सकता है। आत्मा को परमात्मा अथवा त्रिलोकपूज्य बनाने वाला अन्य कोई तत्त्व नहीं है। वह स्वयं ही अपने मिथ्यात्व, अज्ञान एवं राग-द्वेष आदि विकारों तथा विकल्पों को मूलतः विनष्ट कर सम्यग्दर्शी, सम्यग्ज्ञाता एवं यथाख्यातचारित्री बन कर आत्मा से परमात्मा बन सकता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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