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सम्यग्दर्शन: शास्त्रीय-विवेचन है। आत्मा की निर्मलता, तीव्र कषाय की परिसमाप्ति एवं जागरणशील आत्मबोध की अवस्था निश्चय सम्यग्दर्शन की अवस्था है। शरीर, इन्द्रिय एवं मन से परे जो आत्मा है, जिसकी अक्षय ज्योति से शरीर, इन्द्रिय, मन आदि जगमगा रहे हैं उसकी स्पष्ट रूप से पहचान ही आत्म दर्शन है, और वही सम्यग्दर्शन है। __ जिस मनुष्य को आत्मिक-दर्शन हो जाता है, वह शरीर को एकमात्र साधन रूप समझता है, उसे साध्य रूप नहीं मानता है। सर्वत्र आत्मा को परम निर्मल और अतीव उज्ज्वल ही रखता है। आत्मदृष्टिपरायण व्यक्ति के सन्मुख जब शरीर एवं आत्मा इन दोनों में से किसी एक की सुरक्षा का प्रमुख-प्रश्न हो तो, वहां वह आत्मा को बचाता है। शरीर एवं शरीर से संबंधित पदार्थ को विनष्ट होने देता है। आत्म दृष्टि से अभ्यस्त मनुष्य चाहे समूह में हो, चाहे एकान्त में हो, बड़े से बड़े भौतिक-प्रलोभन के समय फिसलता नहीं है। वह आत्मा की सुरक्षा कर लेता है। कोई भी शक्ति उसे भय अथवा प्रलोभन दिखा कर आत्मदृष्टि से विचलित नहीं कर सकती है। सचमुच जागृत और आत्म दृष्टि सम्पन्न मनुष्य को कोई भी स्थल, काल अथवा व्यक्ति पतित और विचलित नहीं कर सकता है। जिसमें सच्चा आत्म दर्शन नहीं है, जिसे आत्म-स्वरूप की प्रतीति भी नहीं है वह चाहे जितना महान, उच्च कोटि का साधक हो, उसे पतन के गर्त की ओर फिसलने से कोई रोक नहीं सकता है। वास्तव में आत्मदृष्टि से सम्पन्न मनुष्य संसार की मोह-माया में नहीं लिपटता है। वह सर्वत्र और सर्वदा शुद्धोपयोग की ज्ञान धारा में बहता है। वह दूसरों के सुधार एवं उद्धार की अपेक्षा पहले अपना सुधार एवं उद्धार करता है। आत्मा के अनुभव का अर्थ है-वीतरागता के अर्थात् विशुद्ध आत्मा के सुख का रसास्वादन करना, शान्ति रूप स्वभाव का अनुभव करना। 'मैं राग-द्वेष आदि विकल्पों से रहित चित् चमत्कार भावों से उत्पन्न मधुर रस के आस्वाद-सुख का धारक हूं।' इस प्रकार निश्चय रूप सम्यग्दर्शन है।२१ सुख एवं दुःख का प्रत्यक्षतः अनुभव प्रत्येक संसारी जीव को सम्भव है। अन्धे को सुई का ज्ञान होना संभव नहीं है, पर इसके चुभने का प्रत्यक्ष वेदन हो जाना संभव है। इसी प्रकार आत्मा का अनुभव ही सम्यग्दर्शन है और यही सम्यक्त्व है।
सम्यग्दर्शन भी आत्मा का अमूर्तिक गुण है।३२ वह इन्द्रिय प्रत्यक्ष भी नहीं है। मोक्ष जब आत्म-स्वरूप है तो सम्यग्दर्शन आदि भी आत्म-स्वरूप होना चाहिये। स्पष्टतः उल्लेख प्राप्त होता है कि इस आत्मा के मुक्त हो जाने पर न तो इन्द्रियों से परिज्ञान होता है न मोह जन्य अभिरुचि होती है, न शारीरिक आचरण होता है। अतएव ज्ञान, दर्शन और चारित्र ये तीनों आत्म-स्वरूप ही हैं।२२ तात्पर्य यह है कि वीतराग पुरुषों में तत्त्वार्थ श्रद्धान अथवा यथार्थ पदार्थों के प्रति अभिरुचि न होते हुए भी उनमें सम्यग्दर्शन गुण होता है। इसलिये व्यवहारनय की अपेक्षा से लक्षण करने में दोष रह जाता है। वह पूर्णरूपेण समस्त आत्माओं में घटित नहीं होता है। इसीलिए निश्चय नय की अपेक्षा से निश्चय सम्यग्दर्शन का स्पष्टतः लक्षण है कि सम्यग्दर्शन मोक्ष का बीज है, वह स्वरूप से भूतार्थ, तत्त्वार्थ श्रद्धान रूप, केवल अनुभूति से गम्य है, अथवा व्यवहार में प्रशम आदि लक्षणों से गम्य है, वह शुद्धतम आत्म परिणाम रूप है।४ शुद्धतम आत्मिक-परिणाम में आत्म-प्रत्यक्ष के अतिरिक्त
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