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________________ ७४ जिनवाणी-विशेषाङ्क अतएव जब अन्यान्य समस्त पर पदार्थों को छोड़कर परम निर्मल आत्मा पर दृढ़ता से श्रद्धा होगी, तभी समझा जायेगा कि सम्यग्दर्शन का सहस्रकिरण सूर्योदय हुआ है। जिसकी स्वात्म-रुचि अतीव अविचल हो जाती है। वह पर पदार्थों पर राग एवं द्वेष आदि नहीं करता है। इन्द्रियों के भौतिक सुखों में लुब्ध नहीं होता है । अतीन्द्रिय आत्मिक आनन्द में ही उसकी अभिरुचि होती है। किन्तु जब तक पर पदार्थों में अभिरुचि रहती है तब तक निज स्वभावभूत शान्ति उपलब्ध नहीं होती है। अतएव पर-पदार्थों की रुचि का परित्याग करके स्वात्मरुचि का होना ही निश्चय सम्यग्दर्शन कहलाता है। - इसी संदर्भ में यह ज्ञातव्य है कि राग एवं द्वेष आदि से सर्वथा रहित अपनी आत्मा में प्रकट अतीन्द्रिय सुख आत्मा का स्वभाव है। उससे युक्त परमात्म तत्त्व सब प्रकार से उपादेय है। उसकी रुचि का नाम सम्यग्दर्शन है। आत्मा का आत्मा में रत होना, तन्मय हो जाना, वही जीव का स्पष्टतः सम्यग्दृष्टि हो जाना है। इसके अतिरिक्त सम्यग्दर्शन का एक और भी लक्षण है। केवल आत्मा की उपलब्धि सम्यग्दर्शन का लक्षण नहीं है। यदि वह शुद्ध है, तो उसका लक्षण हो सकता है। यदि अशुद्ध है तो नहीं।८ आत्मा की विशुद्ध उपलब्धि का अर्थ है-शुद्धोपयोग अथवा सम्यग्ज्ञान चेतना की क्रियाशीलता। जब तक आत्मा के निर्मल-स्वरूप की प्रतीति न हो तब तक सम्यग्दर्शन दूर है। सम्यग्दर्शन होने पर इस महत्त्वपूर्ण तथ्य की प्रतीति, उपलब्धि एवं सुनिश्चय हो जाता है कि मैं विशुद्ध आत्मा हूँ; यह शरीर, इन्द्रिय आदि मैं नहीं हूँ; मै शरीर से सर्वथा भिन्न आत्मा हूँ; ये मोह, माया, ममत्व आदि सब अपनी ही अज्ञानता के कारण अपनी आत्मा की विभावजन्य परिणति के ही बहुविध रूप हैं। ये आत्मा के यथार्थ स्वरूप नहीं हैं। ये विविध विकल्प और विभिन्न विकार स्वप्न के संसार के समान हैं। आत्मा की वैभाविक परिणति के ये विभिन्न रूप आत्मा की मोह-निद्रा दूर होते ही क्षण भर में सहसा रूपेण सर्वथा विलीन हो जाते हैं। इस प्रकार निज निरंजन निर्मल आत्मा के प्रति सम्यक् श्रद्धान निश्चय सम्यग्दर्शन है। जिस साधक को शरीर एवं इन्द्रिय से पृथक् आत्मा के अजर-अमर अविनाशित्व की अति दृढ़ प्रतीति हो जाए, उसे सम्यग्दर्शन हो जाता है। सम्यग्दर्शन उपलब्ध हो जाने पर उस को यह सुदृढ़-विश्वास हो जाता है कि मृत्यु देह की होती है, आत्मा कदापि मरता नहीं है। वह मरण से कभी भी घबराता नहीं है । जो जन्मता है, मरता है, युवा होता है एवं जरावस्था को प्राप्त होता है वह तो शरीर है, जीव नहीं है। आत्मा नहीं है, वह शरीर आत्मा से सर्वदा एवं सर्वथा भिन्न है। आत्मा तो वास्तव में सच्चिदानन्द स्वरूप है। सर्वथा एकान्त रूप से मिथ्या-विपरीत, प्रमाण-बाधित अर्थ के आग्रह से रहित आत्म-स्वरूप के निश्चय को निश्चय सम्यग्दर्शन कहते हैं।२० निश्चय-सम्यग्दर्शन तभी आविर्भूत होता है जब इस पौद्गलिक शरीर को ही आत्मा समझने की प्राथमिक अन्धकारपूर्ण भूमिका से मनुष्य निकलता है, और आत्मा के अखण्ड प्रकाश को इसमें चमकता हुआ देखता है। तत्पश्चात् उस परम निर्मल आत्मा में ही परमात्मा का परिदर्शन भी करने लगता है। इस प्रकार विशुद्ध आत्मा के स्वरूप का विचार ही निश्चय सम्यग्दर्शन की भूमिका Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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