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________________ सम्यग्दर्शन : शास्त्रीय-विवेचन ८१ गुरु समुदाय के जैन साधुओं की संगति और परिचय को अतिचार नहीं कहा गया है। फिर भी एक धर्म में विभिन्न गुरुओं के समुदायों के श्रावक अन्य जिनमतानुयायी श्रमणों से दूर रहते हैं, संगति का वर्जन करते हैं, ऐसी वर्तमान प्रवृत्ति आगम के इन अतिचारों से पुष्ट नहीं होती है। (५-६) कर्म-सिद्धान्त के चिंतन के साथ समभावों को अधिकतम उपस्थित रखना, किसी के प्रति शत्रुभाव को चित्त में आने नहीं देना और ऐसे भाव कभी उत्पन्न हो जायें तो अधिक अवधि तक स्थिर नहीं रहने देना. यह समकित का 'सम' नामक प्रथम लक्षण है। २. ज्ञान से वैराग्यभाव की वृद्धि करना, मोक्षाभिलाषा दृढ होना :संवेग' नामक दूसरा लक्षण है। ३. सांसारिक वृत्तियों-प्रवृत्तियों से उदासीन भाव बढ़ाते हुए त्याग-प्रत्याख्यान करते हुए निवृत्तिमार्ग में आगे बढना समकित का 'निर्वेद' नामक तीसरा लक्षण है। ४. दुःखी जीवों के प्रति मानस में अनुकंपा भाव ओतप्रोत हो जाना, यथासंभव उनके दुःख विमोचन में प्रवृत्त होने का संकल्प होना, जीवों का दुःख आत्मा में असह्य सा लगना, यह आत्मा का 'अनुकंपा परिणाम' समकित का चौथा लक्षण है। ५. जिनभाषित तत्त्वों एवं आचारों के प्रति हार्दिक श्रद्धा, निष्ठाभाव होना उन्हें पूर्ण सत्य मानना समकित का 'आस्था' नामक पांचवां लक्षण है। (७) आत्म-सन्मार्ग के इच्छुक को सदा समस्त अरिहंत देवों को अपना आराध्य देव मानना, वीतरागमार्गी समस्त सुसाधुओं को अपना गुरु मानना, अहिंसाप्रधान, दयाधर्मप्रधान जिनधर्म को अपना आराध्य धर्म समझना, जब भी समय और शक्ति का संयोग हो इन्हीं देव, गुरु व धर्म के सत्संग एवं आचरण में पुरुषार्थ करना, अन्य धर्मान्तरीय अर्थात् वीतराग मार्ग से अन्य मार्गदर्शक देव, साधु तथा धर्म का नाम धराने वालों के पास नहीं भटकना, यही सन्मार्ग में सुरक्षित रहना है। (८) व्यक्तिगत किसी एक साधु को गुरु मान बैठना या एक गुरु की समुदाय वाले साधु-साध्वियों को ही गुरु पद में मान बैठना, फिर चाहे वह गुरु या वह समुदाय वीतराग मार्ग में किसी निम्न या उच्च स्तर में हो, अन्य सुसाधुओं या गुरुओं के समुदाय को गुरु पद में नहीं मानना, ऐसा गुरुपन किसी भी आगम से सम्मत नहीं है। आगम में देव, गुरु पद में समस्त वैसे गुणधारियों का ग्रहण किया जाता है। पक्षवाद और संकीर्ण-मानस की उत्पत्ति से आत्मा का उत्कर्ष और समाज का उत्कर्ष दोनों ही दूषित और अवरुद्ध होते हैं। __ (९) वास्तव में समकित की प्रतिज्ञा से गृहीत गुरु अनेक हैं जो आगमदृष्टि से अनेक हजार करोड़ हैं। उनका गुण परिचय यह है कि जो भगवद् भाषित ५ महाव्रत, ५ समिति, ३ गुप्ति एवं अन्य भी आगमोक्त भगवद् आदेशों का ईमानदारी पूर्वक अपनी क्षमता के अनुसार पालन करते हैं वे ही हमारी समकित प्रतिज्ञा में समाविष्ट गुरु हैं। (१०) गुरुआम्नाय की वृत्ति के माध्यम से एक गुरु और एक संप्रदाय में समाज को बांधना सांसारिक रुचि का द्योतक है। आगम में इस शब्द का कहीं भी प्रयोग नहीं हुआ है। भगवान् के पास श्रावक व्रत स्वीकार करने वाले श्रावक द्वारा स्वयं समकित की प्रतिज्ञा समझपूर्वक ग्रहण करने का वर्णन है। किन्तु आज के समान Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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