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________________ ......५७ सम्यग्दर्शन : शास्त्रीय-विवेचन और मोह के चिह्न जपमाला से युक्त हैं, जो निग्रह और अनुग्रह अर्थात् किसी का वध करने या किसी को वरदान देने वाले हैं, ऐसे देव सच्चे नहीं हैं और वे मुक्ति का कारण नहीं हो सकते ये स्त्री शस्याक्षसूत्रादि-रागाद्यंककलंकिताः। निग्रहानग्रहपरास्ते देवाः स्यन मक्तये ।।-हेमचन्द्राचार्य सुदेव तथा कुदेव के विषय में समझ लेने के बाद अब सुगुरु के लक्षण समझिये। किसी भी वेष को धारण करने वाले गुरु हों, किन्तु वे अगर पंच महाव्रतों का सम्यक् रूप से पालन करते हैं तो वे हमारे गुरु हैं। श्री हेमचन्द्राचार्य ने गुरु के लक्षण बताए हैं महाव्रत-धरा धीरा भैक्षमात्रोपजीविनः ।। सामायिकस्था धर्मोपदेशका गुरवो मताः ॥ अर्थात् पांच महाव्रतों (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह) को धारण करने वाले, परीषह और उपसर्ग आदि आने पर भी व्याकुल न होने वाले, भिक्षा से उदरपूर्ति करने वाले, सदैव सामायिक अर्थात् समभाव में रहने वाले तथा धर्म का उपदेश देने वाले गुरु कहलाने के अधिकारी हैं। इसके विरुद्ध सर्वाभिलाषिणः सर्वभोजिनः सपरिग्रहाः । ___ अब्रह्मचारिणो मिथ्योपदेशा गरवो न त् ॥-हेमचन्द्राचार्य जो धन-धान्यादि सभी वस्तुओं की अभिलाषा रखने वाले, मद्य, मधु, मांस आदि सभी वस्तुओं का आहार करने वाले, परिग्रह से युक्त, अब्रह्मचारी और मिथ्या उपदेश देने वाले हैं, वे गुरु नहीं हैं, कुगुरु हैं। ___अब हम सम्यक् धर्म के लक्षण पर आते हैं। श्री हेमचन्द्राचार्य के अनुसार धर्म के निम्नलिखित लक्षण हैं दुर्गतिप्रपतत्प्राणि-धारणाद्धर्म उच्यते। संयमादिदशविधः सर्वज्ञोक्तो विमुक्तये ॥ नरक व तिर्यञ्च आदि दुर्गतियों में जाते हुए जीव को जो बचाता है, वही धर्म है। संयम आदि दस प्रकार का क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिञ्चन्य तथा ब्रह्मचर्य रूप धर्म ही मोक्ष प्रदान करने वाला होता है। मनुस्मृति में भी धर्म के दस लक्षण बताये गये हैं धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रिय-निग्रहः। धीविद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् ।।-मनुस्मृति धैर्य, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रियनिग्रह, धी, विद्या, सत्य, अक्रोध, ये धर्म के दस लक्षण हैं। सच्चा धर्म पापों की जड़ काटकर मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करता है पर मिथ्या धर्म इससे उलटे भवभ्रमण के भंवर में डाल देता है। कुधर्म के लक्षण हैं मिथ्यादष्टिभिराम्नातो हिंसाद्यैः कलषीकतः। स धर्म इति वित्तोपि, भवभ्रमणकारणम् ।।-योगशास्त्र अर्थात् मिथ्यादृष्टियों के द्वारा प्रवर्तित और हिंसा आदि दोषों से कलुषित धर्म प्रसिद्ध होने पर भी संसार-परिभ्रमण का कारण बनता है। मेरा अनुरोध तो सिर्फ इतना ही है कि सत्य देव, सत्यगुरु, सत्यधर्म को पहचानें। दूसरों का पतन देखकर स्वयं अपना अधःपतन न करें अन्यथा हममें से कोई भी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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