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संजीवनी श्रद्धा
- महासती श्री उमरावकंवर जी 'अर्चना' श्रद्धा जीवन-निर्माण का मूल मन्त्र होता है। बिना श्रद्धा के कोई भी मनुष्य इस संसार-सागर से पार हुआ हो, ऐसा इतिहास नहीं बताता। व्यक्ति कितना भी विद्वान् हो, ज्ञानवान् हो, पण्डित हो, दार्शनिक हो, किन्तु अगर उसमें सम्यक्त्व नहीं है, उसकी आत्मा के प्रति श्रद्धा नहीं है, तो विविध भाषाओं का ज्ञान तथा अनेक प्रकार की कलाओं का अभ्यास भी उसे इस संसार-सागर से तैरा कर पार नहीं कर सकता। स्व. स्वामी श्री चौथमल जी म. ने यही बात अपनी राजस्थानी भाषा की पंक्तियों में कही
जिणन्द मैं जग किम तरतूं हो? इंगलिश, हिन्दी, फारसी, भण भण उर भरसं हो। जिन आगम जचिया बिना, हूं खोटो खर सूं हो। विविध प्रकार व्याख्यान दे, वर शोभा वर हो। पिण समकित रुचियाँ बिना, कहो, कैसे सुधरसँ हो ।
जिणन्द मैं जग किम तरसँ हो। तात्पर्य यही है बन्धुओं ! कि ज्ञान कितना भी हासिल कर लिया जाय किन्तु जब तक सच्चे देव, गुरु तथा धर्म पर श्रद्धा नहीं हो, तब तक मनुष्य न सच्चा श्रावक ही कहला सकता है और न ही साधु ।
श्रद्धा अथवा आस्था से ही मन की अनेक गुत्थियाँ सुलझ जाती हैं। श्रद्धा के बिना शरीर के रोगों की अथवा मन के रोगों की कोई भी औषधि अपना प्रभाव नहीं डालती। श्रद्धा ही जीवन के लिये अमृत है। संसार में किसी भी साध्य की प्राप्ति दुर्लभ नहीं है। किन्तु दुर्लभ है विश्वास अथवा श्रद्धा। जैनागम कहता है-'सद्धा परमदुल्लहा।'
श्रद्धा के दो रूप होते हैं-प्रथम सम्यक् श्रद्धा, दूसरी अन्धश्रद्धा । पहली विवेकपूर्ण होती है और दूसरी अविवेकपूर्ण । दोनों में गौ के दूध और रक्त के जितना अन्तर होता है। हालांकि दोनों गाय से ही प्राप्त होते हैं पर अन्तर कितना विशाल होता है। हीरा और कोयले के उदाहरण से भी आप इसे समझ सकते हैं। दोनों एक ही तत्त्व से बनते हैं, फिर भी दोनों के मूल और कार्य में महान् अन्तर होता है ।
जिस व्यक्ति को सच्चे देव, गरु तथा धर्म पर श्रद्धा होती है उसकी श्रद्धा दध व हीरे की तरह मानना चाहिये। इसके विपरीत जो कुदेव, कुगुरु तथा कुधर्म पर श्रद्धा रखता है उसकी श्रद्धा को अन्धश्रद्धा तथा कोयले व रक्त की तरह की श्रद्धा मानना चाहिये।
सच्चे देव वे हैं जो वीतराग हों। जिन्होंने राग-द्वेष को पूर्ण रूप से जीत लिया है, उन्हें हमें देव मानना चाहिए, भले ही उनका अन्य कुछ भी नाम हो। कहा गया है-'वीतरागो जिनो देवो रागद्वेष-विवर्जितः।' जो राग तथा द्वेष के दोषों से रहित हो गए हैं ऐसे देवाधिदेव वीतराग प्रभु को ही जिनेन्द्र-भगवान् और जिनदेव कहा जाता
इसके विपरीत जो राग के चिह्न स्त्री से युक्त हैं, द्वेष के चिह्न शस्त्र से युक्त हैं
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