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सम्यग्दर्शन : शास्त्रीय विवेचन इस गुण का स्वामी संसार का सच्चा द्रष्टा बन कर रहता है। भोक्ता होते हुए भी द्रष्टा बने रहना, इस गुण के प्रभाव से संभव बन जाता है ।
पुण्य का भोग हो या पाप का भोग हो, दोनों ही इस गुण से निर्जरा के कारण बन सकते हैं। यह गुण दुःख की सामग्री की अपेक्षा भी सुख की सामग्री में बहुत ही विरक्तता पैदा कर देता है। इस गुण की अनुपमता को यथार्थ रूप में अनुभव कराना, अनुभव बिना संभव नहीं है। इस गुण को प्राप्त करने वाले संसार के मेहमान बन जाते हैं अर्थात् इस गुण के स्वामी संसार से विरक्त बनते हैं तब संसार उनके अनुकूल बनता है। संसार में सच्चे सुख का अनुभव भी इस गुण के स्वामियों के लिए ही सुरक्षित है। तत्त्ववेदन
सम्यग्दर्शन के प्रभाव से अनन्त उपकारी श्री अरिहन्त परमात्मा द्वारा प्ररूपित तत्त्वों का वेदन अर्थात् श्रद्धान आत्मा को होता है, इसलिये सम्यग्दर्शन को तत्त्ववेदन भी कहा जाता है। सच्चा तत्त्ववेदन आत्मा को संसार से उदासीन बनाता है। अनुकूल सामग्री में होने वाली आसक्ति और प्रतिकूल सामग्री में होने वाला उद्वेग ये दोनों आत्मा के लिए हानिकर हैं। जब इन दोनों का विनाश होता है तब सच्चा उदासीन भाव आता है। श्री जिनेश्वर देवों द्वारा प्ररूपित जीवादि के स्वरूप का सच्चा श्रद्धान आत्मा पर चढ़े हुए मोहविष का नाश करने के लिये जड़ी बूटी का काम करता है जगत को उसके स्वरूप में जानने के लिए यह तत्त्ववेदन बहुत ही आवश्यक है वैराग्य के लिए भी भवस्वरूप का ज्ञान आवश्यक है और इस ज्ञान के लिए तत्त्ववेदन बहुत जरूरी है। सम्यग्दर्शन के साथ दुःख का नाश और सुख का आरम्भ
कर्मजनित गाढ़ राग-द्वेष के परिणाम रूप ग्रन्थि का भेद हुए बिना यह सम्यग्दर्शन उत्पन्न नहीं होता। इस ग्रन्थिभेद के पूर्व आत्मा को निविड कर्मजन्य जो संसार दुख होता है वह ग्रन्थिभेद होने के बाद नहीं रहता। अत: उपकारियों ने इस सम्यग्दर्शन को दुःखान्तकर भी कहा है। सचमुच, सम्यग्दर्शन की प्राप्ति से किसी अपेक्षा से दुःख का अन्त हुआ, यह कहने में तनिक भी अतिशयोक्ति नहीं है । सम्यग्दर्शन का स्वामी यदि उत्कट परिणाम का स्वामी बन जाता है तो वह उसी भव में क्षपकश्रेणी प्राप्त कर, केवलज्ञान का स्वामी बनकर सिद्धिपद का भोक्ता बन जाता है। यद्यपि ऐसा किसी किसी के लिए ही होता है तदपि होता तो है यह निर्विवाद है। इस कारण भी इस सम्यग्दर्शन को दुःखान्तकर कहने में कोई बाधा नहीं है। इसी कारण इसे सुख का आरम्भ करने वाला भी कहा जाता है। जो दुःखान्तकारी होता है वह सुख का आरम्भक होता है, यह भी निर्विवाद है। दुःख का अन्त करने वाला सम्यग्दर्शन सुख का आरम्भ करने वाला भी होने से दुःखान्तकर की तरह सुख का आरम्भक भी कहा जाता है। सम्यग्दर्शन के साथ ही आत्मा में सम्यग्ज्ञान प्रकट होता है। अत: अज्ञान रूप दुःख गया और सम्यग्ज्ञान रूप सुख शुरु हुआ, यह भी निश्शंक ही है।
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