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________________ सम्यग्दर्शन : मुक्ति का बीज Xx श्रीमद् विजय रामचन्द्रसूरिजी म. सा. सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र ये मोक्ष के उपाय हैं । सम्यग्दर्शन के अनेक पर्याय हैं। सम्यग्दर्शन को जैसे दर्शन कहा जाता है वैसे ही मुक्तिबीज भी कहा जाता है | इसे सम्यक्त्व भी कहा जाता है तो तत्त्ववेदन भी कहते हैं । दुखान्तकृत भी कहा जाता है । सुखारम्भ भी कहा जाता है 1 दर्शन आत्मा के यथावस्थित स्वरूप को समझने में अति उपयोगी होने से इसके लिये दर्शन शब्द बहुत ही सार्थक है । सम्यग्दर्शन की सहायता के बिना जीवादि तत्त्वों की सच्ची समझ नहीं हो सकती । मुक्ति का बीज सकल कर्मों की निवृत्ति रूप मुक्ति सम्यग्दर्शन का फल है और इस फल का बीज सम्यग्दर्शन है । अनेक पाप - इच्छाओं में रमता हुआ आत्मा जब सम्यग्दर्शन प्राप्त करता है तब उस सम्यग्दृष्टि आत्मा की रमणता केवल मुक्ति की इच्छा में ही होती है । सम्यग्दर्शन- प्राप्त आत्मा की अन्य इच्छाओं में रमणता नहीं होती । सम्यग्दर्शन, एक ऐसा गुण है कि इस गुण को प्राप्त आत्मा संसार सुख को सच्चा सुख मानने से विमुख बन जाती है । सम्यग्दर्शन गुण के प्रताप से आत्मा सच्चा परिणामदर्शी बन जाता है, अत: संसार के सुखों को वह दुःख रूप और दुःख के कारण मानता है । सुख के लिए तो वह मोक्ष की ही इच्छा करता है । इसलिए वह ज्ञान और चारित्र को पाकर परिणाम के फलस्वरूप मुक्ति को प्राप्त करने वाला होता है । इस कारण सम्यग्दर्शन को मुक्ति का बीज कहा जाता 1 सम्यक्त्व सम्यग्दर्शन को सम्यक्त्व भी कहते हैं । सम्यक्त्व अर्थात् आत्मा का सम्यग्भाव । आत्मा के मिथ्यात्व रूप मल के अपगम से आत्मा का परम निर्मली भावरूप जो सम्यग्भाव है, वही सम्यक्त्व है। क्षायिक सम्यक्त्व में मिथ्यात्व का सत्ता में से भी अपगम होना चाहिए । क्षायोपशमिक सम्यक्त्व में मिथ्यात्व का रसोदय रूप में अपगम होना चाहिए और औपशमिक सम्यक्त्वमें मिथ्यात्व के उदय का अभाव होना चाहिए। इस प्रकार योग्यतानुसार मिथ्यात्व के अपगम से आत्मा में जो परम निर्मलता पैदा होती है यह आत्मा का स्वभाव है और इसी का नाम सम्यक्त्व है । सम्यग्दर्शन का यही स्वरूप होने से इसे सम्यक्त्व भी कहते हैं । के प्रकट हेय में उपादेय बुद्धि और उपादेय में हेय बुद्धि कराने वाले मिथ्यात्व का उस प्रकार का अभाव हुए बिना यह गुण आत्मा में प्रकट नहीं होता। इस गुण होने के बाद आत्मा बहुत ही विवेकी बन जाता है । उसका विवेक उसे वस्तु के स्वरूप में स्थिर रखता है । इसी कारण इस गुण का स्वामी राज्य आदि का उपभोग करने पर भी राज्यादि को कभी उपादेय की कोटि में नहीं मानता, इस गुण की उत्कृष्ट दशा में रमण करता हुआ आत्मा तो बंध के कारणों से भी निर्जरा कर सकता है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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