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________________ सम्यग्दर्शन : शास्त्रीय-विवेचन नहीं हो सकती। अतएव सम्यादृष्टि जीव परदया भी अवश्य करता है। दुःखी जीव को देखकर वह राम-राम करके निकल नहीं जाता, बल्कि उसके दुःख को दूर करने का प्रयत्न करता है। वह स्वयं दुःख सहन कर लेता है, किन्तु पर के दुःख की उपेक्षा नहीं करता। शास्त्रों में बहुत-से ऐसे दृष्टान्त मौजूद हैं। राजा मेघरथ का ज्वलंत उदाहरण प्रसिद्ध ही है। भय से कांपता हुआ कबूतर उसकी शरण में आता है। राजा उसे दुःखी देखकर द्रवित हो जाता है। उसके अन्तःकरण में अनुकम्पा का भाव उमड़ पड़ता है। वह कबूतर को पुचकारता है और सान्त्वना देता है। उसी समय शिकारी आ पहुंचता है और अपने महत्त्व की मांग करता है। वह कहता है कि मैं भूख से मरा जा रहा हूँ। राजा मेघरथ उस पर भी क्रोध न करके अनुकम्पा ही करता है। कोई और होता तो अपने सेवक को आज्ञा देकर उसे पिटवाता, धक्के देकर बाहर निकलवा देता और शायद इतना करने का भी उसे अवसर न आता। जरा भौंहैं टेढ़ी करते ही शिकारी के छक्के छूट जाते। मगर राजा को कबूतर से राग नहीं था और शिकारी से द्वेष नहीं था। दोनों पर उसका अनुकम्पा भाव था। अतएव राजा ने उसे शान्ति के साथ दूसरी भोजन सामग्री लेने को कहा। जब वह नहीं माना तो अपना शरीर ही देने को तैयार हो गया। इसे कहते हैं अनुकम्पा । दयावान् वही है जो दूसरे का दुःख दूर करने के लिए अपने दुःख की परवाह नहीं करता। ऐसे सैंकड़ों उदाहरण शास्त्रों में भरे पड़े हैं। धर्मरुचि अनगार ने अनुकम्पा से प्रेरित होकर अपने प्राणों की भी ममता त्याग दी और मेतार्य मुनि ने अनुकम्पा के कारण अपने प्राणों की चिन्ता नहीं की। तात्पर्य यह है कि सम्यग्दृष्टि जीव का अन्तःकरण अत्यन्त कोमल हो जाता है। परपीड़ा देना तो दूर रहा, वह पीड़ित को देख कर स्वयं पीड़ित हो जाता है और यथाशक्ति उस पीड़ा को दूर करने का प्रयत्न करता है । आज बहुत-से ऐसे लोग हैं और महिलाएँ भी हैं, जो अपनी प्रतिष्ठा जाने के विचार से बहुत कठिनाई में होते हुए भी किसी के आगे मुँह नहीं खोलते। उनके घर में बाल-बच्चे भी हैं। खास तौर से ऐसों का ध्यान रखना सम्यग्दृष्टि का कर्तव्य है। ऐसे लोगों के घर पर गुप्त रूप से सहायता पहुँचाना सच्ची दया का एक अंग है। आस्तिक्य सम्यक्त्व का पाँचवा लक्षण आस्था या आस्तिक्य है। पुण्य, पाप, स्वर्ग, नरक, आत्मा, धर्म, देव व गुरु पर पक्की श्रद्धा रखने वाला आस्तिक कहलाता है। सम्यग्दृष्टि जीव पाप और पुण्य तथा उनके फलस्वरूप प्राप्त होने वाले नरक और स्वर्ग पर विश्वास रखता है और जब इन पर विश्वास रखता है तो इनको भोगने वाले आत्मा पर कैसे अविश्वास कर सकता है ? इसी प्रकार देव, गुरु और धर्म पर भी सम्यग्दृष्टि विवेकपूर्ण श्रद्धा रखता है। जोइसेसु जहा चंदो, वणेसु नंदणं वणं । गंधेसु चंदणं चेव, देवेसु य जिणो तहा। ज्योतिष्क देवों में जिस प्रकार चुन्द्रमा प्रधान माना गया है, वनों में नन्दनवन प्रधान माना गया है और गंध में चन्दन प्रधान माना गया है उसी प्रकार देवों में जिनेन्द्र देव प्रधान माने गए है। -आचार्य श्री घासीलालजी म.सा. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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