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जिनवाणी-विशेषाङ्क
हैं , वे ही आखिर दुःख देने वाली साबित होती हैं।
एक सँकड़े मुँह के मटके में लड़ भरे थे। एक बंदर वहाँ पहुँचा और लड्ड निकालने के लिए उसने हाथ डाला। हाथ में लड्डु ले लिया और मुठ्ठी बांध ली। अब वह मुट्ठी बांधे हाथ निकालना चाहता है, पर मुंह संकड़ा होने के कारण मुट्ठी निकल नहीं सकती। मुट्ठी खोलता है तो लड्डु जाता है। वह हाथ भी निकालना चाहता है
और लड्ड भी नहीं छोड़ना चाहता। इसी प्रकार तुम भी चाहते हो कि हमें संसार के भोगोपभोग भी न छोड़ने पड़ें और मोक्ष का सुख भी मिल जाय। मगर ऐसा नहीं हो सकता। या तो मोक्ष ले लो या विषय-सुख ले लो। या तो हाथ छुडा लो या लड्ड छोड़ो या फँसे रहो। बुद्धिमान् बंदर यही पसंद करेगा कि लड्ड भले जायें मगर हाथ छूट जायें। आप क्या पसंद करते हैं, यह आपको सोचना है। नर होकर वानर से गये-बीते तो नहीं होओगे? अगर सच्चा सुख चाहते हो तो मोह-माया को छोड़ो। परमार्थ का विचार करके अपने कर्तव्य का निर्णय करो और उसमें प्रवृत्त हो जाओ।
सम्यग्दृष्टि जीव तत्त्व को पहचान लेता है और इस संसार को कारागार समझ कर, अपने आपको बंदी मान कर, इसमें अनुरक्त नहीं होता। वह संसार से छूटने की ही भावना भाता रहता है। यह सम्यक्त्व का तीसरा लक्षण है और इसे निर्वेद कहते हैं। निर्वेद का अर्थ यही है कि संसार से उदासीन रहे। दुनिया की मोह-ममता से हाथ हटा लेने की भावना रखे । अविरत सम्यग्दृष्टि जीव साधु नहीं बना है, फिर भी सम्यक्त्व प्राप्त कर चुका है। वह कुटुंब परिवार में रहता है, धन-सम्पत्ति भी रखता है, मगर अन्तस में एक प्रकार की विरक्ति बनी रहती है। भीतर वह समझता है कि यह सब वस्तुएं मेरी नहीं हैं और मैं इनका नहीं हूं। कहा भी है
सम्यग्दृष्टि जीवड़ा, करे कुटुम्ब प्रतिपाल।
अन्तरगत न्यारा रहे, ज्यों धाय खिलावे बाल । सम्यग्दृष्टि जीव परमार्थ का बहाना करके अपने लौकिक कर्तव्य का पालन करने में जी नहीं चुराता, धर्म के नाम पर अकर्मण्यता को प्रश्रय नहीं देता, और अपने उत्तरदायित्व से किनारा नहीं काटता। मगर भीतर से वह उदासीन रहता है, अलिप्त, अनासक्त रहता है। जैसे धाय बालक को खेलाती है, उसकी सार-संभाल करती है, उसे लाड़-प्यार भी करती है, उसके प्रति अपने कर्तव्य का प्रामाणिकता के साथ पालन करती है, फिर भी अन्तरंग में इस बात को भलीभांति समझती है कि यह बालक मेरा नहीं है, मैं इसकी माता नहीं हूँ, यह अलग है और मैं अलग हूँ। इसी प्रकार की वृत्ति सम्यग्दृष्टि में होती है। वह संसार के किसी भी पदार्थ में आसक्त नहीं होता। अनुकम्पा
सम्यक्त्व का चौथा लक्षण अनुकम्पा है। सम्यग्दृष्टि जीव के हृदय सरोवर में अनुकम्पा की उत्ताल तरंगें उठती रहती हैं। वह स्वदया भी करता है और पर दया भी करता है। स्वदया क्या चीज है? यह सोचना कि अब मुझे अपनी आत्मा को नरक-निगोद में नहीं जाने देना है, चौरासी के चक्कर से निकलना है। इस प्रकार सोच कर आत्मा को बुरे मार्ग से बचाना दुःखों की राह से हटाना और सच्चे सुख की ओर ले जाने का प्रयत्न करना, यह सब स्वदया है। परन्तु परदया के अभाव में स्वदया
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