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जिनवाणी-विशेषाङ्क व्यक्ति अपना शुभ नहीं कर पायेगा और यह दुर्लभ नरभव व्यर्थ हो जाएगा। कवि रसखान ने कितना सुन्दर पद लिखा है कि मनुष्य को बिना किसी ओर देखे भगवान् का इस तरह ध्यान रखना चाहिये जैसे कि पनिहारिन अपनी गागर का ध्यान रखती है। गागर के अलावा किसी ओर उसका चित्त नहीं जाता। वे कहते हैं कि सबकी बात सुनकर भी बिना कुछ कहे जो सच्चाई के साथ अर्थात् श्रद्धापूर्वक अपना व्रत, नियम जो कुछ भी करना हो करता रहे, तभी वह भवसागर पार हो सकेगा।
सुनिये सबकी कहियै न कछु, रहिये इमि या भवसागर में, करियै व्रत नेम सचाई लिये, जिन तें तरिये भव-सागर में। मिलिये सब सो दुरभाव बिना, रहिये सतसंग उजागर में,
रसखान गोविन्दहियों भजिये, जिमि नागर को चित्त गागर में। आज के समय मनुष्य में सबसे बड़ी कमी है श्रद्धा की। श्रद्धा के बिना मनुष्य अपन आपको भी नहीं पहचान सकता। श्रद्धा के बिना ज्ञान भी पंग के सदृश हो जाता है। मेधावी तथा महान् वही होता है जिसकी रग-रग में श्रद्धा बसी हुई हो। तर्क उसे उलझा नहीं सकता, आशंका उसे डिगा नहीं सकती।
श्रद्धा और तर्क के पृथक्-पृथक् स्वभाव हैं । कोरा तर्क दिमागी द्वन्द्व है । उससे सत्य तक नहीं पहुंचा जा सकता, सिर्फ उलझा जा सकता है। आचारांग सूत्र में कहा है
'तमेव सच्चं णीसंकं जं जिणेहिं पवेइयं'. जिनेन्द्र भगवान ने जो बताया है, वही सत्य है-शंका रहित है।
बुद्धि की अपेक्षा विश्वास श्रेष्ठ है। तर्क की अपेक्षा श्रद्धा श्रेष्ठ है। बुद्धि दिन के प्रकाश में भी भटक जाती है पर विश्वास अंधेरी और भयानक रातों में भी निर्भय चलता है। तर्क भगवान् को भी पत्थर बना देता है और श्रद्धा पत्थर को भी भगवान् । तो बन्धुओं ! श्रद्धा जब पत्थर को भी भगवान् बना सकती है तो मनुष्य को भगवान् क्यों नहीं बना देगी? बस शर्त यही है कि उसे डगमगाने नहीं दिया जाय । जीवन में आदि से अन्त तक वह एक सरीखी दृढ़ रहे । आचारांगसूत्र में साधु के लिये कहा गया है
'जाए सद्धाए निक्खंतो, तमेव अणुपालिया।'-आचारांग सूत्र __ अर्थात् साधु जिस श्रद्धा से घर से निकले उसी श्रद्धापूर्वक सदा संयम का पालन करे। यह नहीं कि कुछ दिन, कुछ महीने, अथवा कुछ वर्षों में ही वह लड़खड़ा जाए, उसकी श्रद्धा डोल जाए और सिंह की तरह गया हुआ गीदड़ की तरह लौट आए।
श्रद्धा अहिंसा, अभय और मैत्री में होनी चाहिये। जिनकी श्रद्धा हिंसा, भय तथा शत्रुता में है उनकी श्रद्धा को बदलते हुए उन्हें साधना-पथ पर अग्रसर करने का प्रयत्न ही भगवान् की भक्ति व पूजा है । यही साधना के राज-पथ पर चलने का एक तरीका है।
शंका, श्रद्धा के लिये कुठार के सदृश है। यह मानव आत्मा में नरक के समान होती है
'Doubt is hell in the human soul.' शंकाओं की समाप्ति ही शांति का आरम्भ है-The end of doubt is the beginning of repose.
शंका मनुष्य को कायर तथा निर्बल बना देती है तथा श्रद्धा उसे दृढ़ और सरल।
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