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________________ जिनवाणी-विशेषाङ्क कदाचित् मिथ्यात्व से ग्रस्त कोई अश्रद्धालु व्यक्ति कुतर्क करके सत्य पथ से विचलित करने का प्रयास करे तो भी दृढ़ प्रतिज्ञ एवं शुद्ध श्रद्धावान् बना रहना चाहिए। उसे स्पष्ट कह देना चाहिए कि वक्ता की निर्दोषता पर वचन की निर्दोषता निर्भर है। जो वक्ता वीतराग है, वह सदोष वचनों का प्रयोग कर ही नहीं सकता। संभव है, कोई तत्त्व हमारी समझ में आवे और कोई न आवे, तथापि सर्वज्ञ ने जो कहा है, वह सत्य है और शंका से परे है। यही तथ्य आचारांगसूत्र में इन शब्दों द्वारा व्यक्त किया गया है तमेव सच्चं नीसंकं जं जिणेहिं पवेइयं वही सत्य है और वही असंदिग्ध है, जिसका तीर्थङ्करों ने प्ररूपण किया है। शुद्ध श्रद्धावान् पुरुष ही स्व-पर का कल्याण करने में समर्थ होता है। जिसके हृदय में श्रद्धा नहीं है और जो कभी इधर और कभी उधर लुढ़कता रहता है, वह सम्पूर्ण शक्ति से, पूरे मनोबल से साधना में प्रवृत्त नहीं हो सकता और पूर्ण मनोयोग के बिना कोई भी साधना सफल नहीं हो सकती। सफलता श्रद्धावान् को ही मिलती मिथ्यात्वी को धर्म अरुचिकर पित्तज्वरवतः क्षीरं तिक्तमेव हि भासते। जिसे पित्तज्वर का प्रकोप हो रहा हो, उसे दूध जैसा मधुर पेय भी कटुक मालूम होता है। ज्वर के कारण उसकी रुचि विकृत हो जाती है। दूध तो दूध ही है, उसमें जो मधुरता है वह कहीं चली नहीं जाती, ज्वर के रोगी के लिए दूध अपने आपमें कटुकता नहीं भर लेता, लेकिन ज्वर के प्रभाव से रोगी की रुचि ही बदल जाती है। इसी प्रकार मोहनीय कर्म के प्रभाव से धर्म जैसा मधुर, उपकारक तत्त्व भी मिथ्यादृष्टि को रुचिकर नहीं होता है। मगर धीरे-धीरे, जब कारण मिलते हैं तब मोहनीय कर्म शिथिल होता है, दूर होता है और तब जीव में धर्म की रुचि उत्पन्न होती है; ठीक उसी प्रकार जैसे बुखार हट जाने पर दूध मीठा मालूम होने लगता है और भोजन के प्रति रुचि जागृत हो जाती है। मिथ्यात्व से ग्रस्त जीव की भी रुचि जब खराब हो जाती है तब आनन्ददायक, शाश्वत हितकारी, परमकल्याणमय धर्म भी अरुचिकर प्रतीत होता है। सम्यक्त्वी के कर्मबंध न्यून ___ मिथ्यात्व आदि कारणों से संसारी जीव को निरन्तर आस्रव और बन्ध होता रहता है । बन्ध के मुख्य पांच कारण हैं-(१) मिथ्यात्व (२) अविरति (३) प्रमाद (४) कषाय और (५) योग। पहले गुणस्थान में यह पाँचों ही बन्ध के कारक विद्यमान रहते हैं। चौथे गणस्थान में मिथ्यात्व नहीं रह जाता, अतएव शेष चार कारणों से बन्ध होता है। पांचवें गुणस्थान में देशविरति हो जाती है और आंशिक रूप से अविरति हट जाती है, अतएव वहां पूर्ण रूप से तीन कारण और देश रूप से अविरति जन्य कर्मों का बन्ध होता है। छठे गुणस्थान में अविरति पूर्ण रूप से हट जाती है, अतः प्रमाद, कषाय और योग के निमित्त से ही बन्ध होता है। सातवें गुणस्थान में प्रमाद भी नहीं रहता। अतः सातवें से लगा कर दसवें गुणस्थान तक सिर्फ कषाय और योगों के ही कारण बन्ध होता है। दसवें गुणस्थान के अन्त में कषाय का भी क्षय या उपशम हो जाने पर आगे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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