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________________ ४५ सम्यग्दर्शन: शास्त्रीय-विवेचन है। आत्मा स्वभाव से सर्वगुण सम्पन्न तथा दिव्य प्रकाश वाला है, किन्तु मिथ्यात्व के कारण अपना प्रकाश फैलाने में सर्वथा असमर्थ बना हुआ है। अतएव आत्मा के उद्धार का या आत्मा के शोधन का सर्वप्रथम सोपान सम्यक्त्व ही है। ठाणांग सूत्र में भगवान् ने चार प्रकार के पुरुष बतलाए हैं। उनमें से प्रथम श्रेणी में वे हैं जो भगवान् के वचनों पर पूर्ण रूपेण श्रद्धा रखते हुए स्वप्न में भी उनमें कभी असत्यता की आशंका नहीं करते। ___भगवान् वीतराग के वचन यथार्थ ही होते हैं, क्योंकि वे सर्वज्ञ के मुख से निकले हुए हैं। जो महापुरुष सर्वज्ञ होने के कारण समस्त वस्तुओं के स्वरूप को यथार्थ रूप से जानते हैं और वीतराग होने से किसी को धोखा देने या बहकाने के लिए या स्वार्थ से प्रेरित होकर अन्यथा भाषण नहीं करते. उनके वचन मिथ्या नहीं हो सकते। वहां मिथ्या-भाषण करने का कोई कारण नहीं है। अतएव मुमुक्षु जीव को चाहिए कि वह वीतराग के वचनों पर लेश मात्र भी सन्देह न करे और अनिश्चल विश्वास रख कर उन्हीं के अनुसार प्रवृत्ति करे। शङ्का भी श्रद्धापूर्वक हो ___यद्यपि अल्पज्ञ अवस्था में, वस्तु स्वरूप के विषय में शंका होना स्वाभाविक है और वह हुआ ही करती है, किन्तु वह शंका श्रद्धापूर्वक होनी चाहिए। उस शंकालु के गर्भ में अविश्वास छिपा नहीं होना चाहिए। गौतम स्वामी चार ज्ञान के धारक हो करके भी भगवान के समक्ष अनेक शंकाएं करते थे और भगवान महावीर उनका समाधान किया करते थे। तो क्या गौतमस्वामी दृढ़ सम्यक्त्वी नहीं थे? अवश्य सम्यक्त्वी थे, पर उनकी शंकाओं में अश्रद्धा का सम्मिश्रण नहीं होता था। वे भगवान् के वचनों पर पूर्ण एवं अटल श्रद्धा रखते हुए, विशेष निर्णय के लिए, जिज्ञासा से प्रेरित होकर शंका करते थे। इस प्रकार की शंका करने से सम्यक्त्व दूषित नहीं होता। जिस शंका में अश्रद्धा मिली रहती है,तत्त्व की सच्चाई पर जहां विश्वास नहीं होता, वहीं सम्यक्त्व दूषित होता है। अगर कोई शास्त्रीय विषय सूक्ष्म, गहन अथवा जटिल हो और हमारे मस्तिष्क में न आता हो, तो भी उसे यथार्थ ही मानना चाहिए और उसकी यथार्थता के विषय में सन्देह नहीं करना चाहिए। इस सम्बन्ध में एक आचार्य ने बहुत सुन्दर पथ प्रदर्शन कर दिया है __ सूक्ष्म जिनोदितं तत्त्वं, हेतुभिर्नैव गृह्यते। आज्ञाद्धि तु तद् ग्राह्य, नान्यथावादिनो जिनाः ॥ अर्थात् वीतराग सर्वज्ञ द्वारा कथित सूक्ष्म तत्त्व कुछ ऐसे भी होते हैं जो हम अल्पज्ञने की बुद्धि द्वारा ग्रहण नहीं किए जा सकते और तर्क द्वारा उनमें बाधा भी नहीं दी जा सकती। ऐसे तत्त्वों को भगवान की आज्ञा होने से ही अर्थात् आगमकथित होने से ही स्वीकार कर लेना चाहिए, क्योंकि जिन कदापि अन्यथावादी नहीं होते। जिन महात्माओं ने अज्ञान एवं राग-द्वेष को पूरी तरह जीत लिया है, उनके असत्य भाषण का कोई कारण नहीं हो सकता। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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