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सम्यग्दर्शन : शास्त्रीय विवेचन
के तेरहवें गुणस्थान तक सिर्फ योग ही कर्मबन्ध का कारण रह जाता है । केवल योग की प्रवृत्ति के कारण, कषाय की निवृत्ति हो जाने पर सिर्फ प्रकृति और प्रदेशबन्ध होते हैं। स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध रुक जाते हैं। चौदहवें गुणस्थान में योग का भी निरोध हो जाता है, अतएव योगजन्य कर्मबन्ध भी नहीं होता। वहां पूर्ण अबन्धक दशा प्राप्त हो जाती है ।
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इस कथन का तात्पर्य यह निकला कि ज्यों-ज्यों विकार हटते जाते हैं, विभाव परिणमन कम होता है, त्यों-त्यों कर्मबन्ध भी कम होता चला जाता है । आस्रव और
ध के कारणों की प्रबलता पाकर आत्मा अधिक कर्मों का संचय करता है और उनके विरोधी संवर और निर्जरा की प्रबलता होने पर नया कर्मबन्ध रुकता जाता है और पहले हुए कर्मों का क्षय होता जाता है । इस प्रकार आत्मा के स्वाभाविक गुणों का विकास होता है और विकास की अन्तिम परिणति 'मुक्ति' कहलाती है । इस कथन का यह भी अभिप्राय है कि बन्ध के अभाव ( संवर) का प्रारम्भ सम्यक्त्व से होता है और जैसा कि कहा जा चुका है कि सम्यक्त्व चतुर्थगुणस्थान में होता है अतएव कहना चाहिए कि मोक्षमार्ग का आरम्भ ही चौथे गुणस्थान से होता है । यद्यपि चौथे गुणस्थान वाला अविरति सम्यग्दृष्टि व्रतों का आचरण नहीं करता, फिर भी उसके अनेक बुरे काम छूट जाते हैं। शराब पीना, मांस खाना आदि दुर्व्यसन, जो धार्मिक, नैतिक एवं लौकिक दृष्टि से भी गर्हित है, सम्यग्दृष्टि छोड़ देता है । सम्यग्दृष्टि हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील आदि पापों को हेय समझने लगता है और इन पापों का आचरण करने में उसकी रुचि नहीं रहती। हालांकि व्रत के रूप में वह अहिंसा को अंगीकार नहीं करता है, मगर मिथ्यादृष्टि की तरह पापों को भला भी नहीं समझता है और कदाचित् पाप का आचरण करना पड़े तो वह अपने आपको धिक्कारता है ।
सम्यग्दृष्टि जीव चारित्रमोहनीयकर्म की अनन्तानुबन्धी कषाय का क्षय या उपशम कर देता है, अतएव उसमें कषाय की मात्रा भी अपेक्षाकृत कम हो जाती है | तीव्रतम क्रोध, जिससे प्रेरित होकर मनुष्य आत्महत्या जैसे घोर दुष्कर्म में प्रवृत्त हो जाता है, उसमें नहीं रह जाता। इसी प्रकार तीव्रतम मान, कपट और लालच भी हट जाते हैं I सम्यग्दृष्टि जीव सोचता है कि अरे जीव ! ये कषाय ही भव भव में भटकाने वाले और नाना योनियों में नाना प्रकार के कष्ट देने वाले हैं । यह आत्मा में मलीनता उत्पन्न करके उसे विकृत करने वाले हैं । कषाय ही जन्म-मरण रूप प्रासाद के प्रधान स्तंभ हैं। अतएव क्यों इस कचरे को अपने भीतर भरता है ? इस कचरे से तेरा अकल्याण ही होगा ।
सम्यक्त्वी जीव के पाँच क्षण प्रसिद्ध हैं- १. शम २. संवेग ३. निर्वेद ४. अनुकम्पा और ५ आस्तिक्य आग इन्हीं पर विचार किया जा रहा है ।
शम
तीव्रतम क्रोध मिथ्यात्व का सहचर है । जिसे बार-बार ऐसा कषाय आता हो, समझना चाहिए कि उसे अभी तक सम्यक्त्व की प्राप्ति नहीं हुई है । अतएव आप कभी क्रोध में आकर ऐसा मत कहो कि साले का खून पी जाऊंगा, कच्चा खा जाऊंगा ! जब तुम मांस नहीं खाते हो तो फिर क्रोध में आकर ऐसा क्यों बोलते हो ?
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