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________________ जिनवाणी-विशेषाङ्क ___ अर्थात् जो पुरुष तत्त्व के अर्थ से अनभिज्ञ हैं. किन्तु संसार में पूजनीय माने जाते हैं; जो (शत्रुसेना को जीतने में) वीर हैं तथा असम्यग्दर्शी हैं, उनके द्वारा किये हुए तप, अध्ययन और नियम आदि पुरुषार्थ अशुद्ध होते हैं और वे कर्मबन्ध रूप फलयुक्त होते है। इसके विपरीत जो पुरुष तत्त्वज्ञाता. महापूज्य-महाभाग्यशाली, कर्म को विदारण करने में समर्थ और सम्यग्दृष्टि हैं, उनके तप, दान, अध्ययन, नियम आदि सब पराक्रम शुद्ध एवं कर्म-क्षय के कारण होते हैं। उत्तराध्ययन सूत्र के नवें अध्ययन में कहा गया है मासे मासे तु जो बालो, कुसग्गेण तु भुंजए। न सो सुक्खायधम्मस्स, कलं अग्घइ सोलसि ।।--उत्तराध्ययन, ९.४४ जा जीव बाल है, मिथ्यादृष्टि हैं, अज्ञानो है, वह प्रत्येक मास में कुश के अग्रभाग पर जितना आहार आता है उतना ही खाकर रह जाए तब भी वह जिनोक्त धर्म का आचरण करने वाले पुरुष के सोलहवें अंश के बराबर भी नहीं होता। शास्त्रों में स्थान-स्थान पर सम्यग्दर्शन की महिमा का वर्णन किया गया है सद्धा परमदुल्लहा । -उत्तरा. अ. ३ गाथा ९ महामूल्यवान् श्रद्धारूपी रत्न बहुत दुर्लभ है। जो वस्तु दुर्लभ होती है वह अनमोल और महत्त्वपूर्ण होती है। सम्यग्दर्शन रूपी चिन्तामणि रत्न की प्राप्ति बहुत दुर्लभ है। नवतत्त्व प्रकरण की निम्न गाथाओं में सम्यक्त्व का स्वरूप बताकर उसका अपूर्व लाभ बताया गया है जीवाइ नवपयत्थे जो जाणइ तस्स होइ सम्मत्तं । भावेण सद्भहन्ते अयाणमाणे वि सम्मत्तं ॥ सव्वाई जिणसरभासिआइं वयणाई नन्नहा हुंति । इअ बुद्धि जस्स मणे सम्मत्त निच्चलं तस्स ।। अंता मुहत्तमित्तपि, फासिय हुज्ज जेहिं सम्मत्त । तेसिं अवड्डपुग्गलपरियट्टो चेव संसारो॥--नवतत्त्वप्रकरण अर्थात् जो जीवादि नवतत्त्वों का ज्ञाता है उसे सम्यक्त्व होता है। कदाचित् क्षयोपशम की तरतमता से कोई यथार्थ रूप से तत्वों को नहीं जानता है, किन्तु 'तं चेव सच्चं जं जिणेहिं पवेइयं' - जो जिनेश्वर देव ने कहा है वह सत्य है, ऐसी श्रद्धा करता है, तो उसे भी सम्यक्त्व है। जिनेश्वर भगवंतों के वचन अन्यथा कदापि नहीं होते, ऐसी दृढ श्रद्धा जिसको प्राप्त है, उसका सम्यक्त्व निश्चल होता है। जिस आत्मा ने अन्तर्मुहूर्त मात्र के लिये भी सम्यक्त्व का स्पर्श कर लिया उसका अनन्त संसार-भ्रमण परिमित हो गया। अपार्ध पुद्गलपरावर्त काल से अधिक वह संसार में परिभ्रमण नहीं करता है। उसकी मुक्ति सुनिश्चित हो जाती है। कितनी अपूर्व महिमा है सम्यक्त्वरत्न की। एक आचार्य ने निम्न शब्दों में सम्यक्त्व की महिमा बताई है असमसुखनिधानं, धामसंविग्नतायाः, भवसुखविमुखत्वोद्दीपने सद्विवेकः । __ नरनरकपशुत्वोच्छेदहेतुर्नराणाम्, शिवसुखतरूबीजं शुद्धसम्यक्त्वलाभः ।। शुद्ध सम्यक्त्व का लाभ अनुपम सुख का निशान है, वैराग्य का धाम है, संसार के Jain ducation International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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