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________________ सम्यग्दर्शन: शास्त्रीय-विवेचन क्षणभंगुर सुखों से विरक्त करने वाला सद्विवेक है, भव्य जीवों के नरक, तिर्यञ्च और मनुष्य सम्बन्धी दुःखों का उच्छेद करने वाला है और मोक्ष सुख रूपी महावृक्ष के लिए बीज रूप है। दिगम्बराचार्य श्री शुभचन्द्र ने ज्ञानार्णव में कहा है सद्दर्शनं महारत्नं विश्वलोकैकभूषणम्। मुक्तिपर्यन्तकल्याण-दानदक्ष प्रकीर्तितम्॥ सम्यग्दर्शन सब रत्नों में महान् रत्न है, समस्त लोक का भूषण है, आत्मा को मुक्ति प्राप्त होने तक कल्याण-मंगल प्रदान करने वाला है। चरणज्ञानयोर्बीजं यम-प्रशम-जीवितम्। तपः श्रुताद्यधिष्ठान सद्भिः सद्दर्शन मतम्॥ सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र का बीज है, व्रत-महावत और उपशम के लिए जीवन स्वरूप है। तप और श्रुत का यह आश्रयदाता है। इस प्रकार जितने भी शम, दम, व्रत, तप आदि होते हैं उन सबको सफल करने वाला सम्यग्दर्शन ही है। आराधनासार ग्रन्थ में लिखा है - येनेदं त्रिजगद्वरेण्यविभुना, प्रोक्तं जिनेन स्वयं, सम्यक्त्वाद्भुतरत्नमेतदमलं चाभ्यस्तमप्यादरात्। भक्त्वा सप्रसभं कुकर्मनिचयं शक्त्या च सम्यक् पर- . ब्रह्माराधनमद्भुतोदितचितानन्दं पदं विन्दते ।। जो मनुष्य तीन जगत् के नाथ जिनेन्द्र भगवान् द्वारा प्रतिपादित सम्यक्त्व रूप अद्भुत रत्न का आदर सहित अभ्यास करता है, वह दुष्ट कर्मों को बलपूर्वक समूल नष्ट करके विलक्षण आनन्द प्रदान करने वाले परब्रह्म (मोक्ष) को प्राप्त कर लेता है। दर्शनपाहुड में कहा गया है दंसणमूलो धम्मो उवइट्ठो जिणवरेहिं सिस्साणं । तं सोउण सकण्णे दंसणहीणो न वंदिव्यो। वीतरागदेव ने शिष्यों को उपदेश दिया कि धर्म का मूल दर्शन है। इसलिये जो सम्यग्दर्शन से रहित है वह वन्दनीय नहीं है अर्थात् चारित्र तभी वन्दनीय होता है जब वह सम्यग्दर्शन से युक्त हो। योगी श्री आनन्दघनजी ने अनन्त जिन-स्तवन में सम्यग्दर्शन के बिना, शुद्ध श्रद्धा के बिना सर्व क्रियाओं को राख पर लीपने के समान व्यर्थ बताया है देव गुरु धर्मनी शुद्धि कहो किम रहे, किम रहे शुद्ध श्रद्धान आणो। शुद्ध श्रद्धा बिना सर्व किरियाकरी, छार पर लीपणुं तेह जाणो ॥ इस प्रकार आगमिक और अन्य आचार्यों के सुभाषित वचनों द्वारा सम्यग्दर्शन की महिमा पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। ऐसे महामहिमामय और मंगलमय सम्यग्दर्शन को प्राप्त करने और उसे सुरक्षित रखने हेतु सतत जागरूक रहना चाहिये। प्रस्तुति - चम्पालाल डागा सम्पादक, श्रमणोपासक, बीकानेर राज.) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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