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जिनवाणी- विशेषाङ्क
(५) निसग्गुवएसरुई, आणारुई, सुत्तबीय रुइमेव । अभिगमवित्थाररुई, किरिया संखेव धम्मरुई ||
उत्तरा. २८.१६ एवं स्थानांग, १० वां स्थान सम्यक्त्व की उत्पत्ति जिन निमित्तों के प्रति रुचि से होती है उस सम्यक्त्व को उस रुचि के नाम से जाना जाता है । ऐसे रुचिरूप सम्यक्त्व के १० प्रकार हैं - १. निसर्गरुचि २. उपदेश रुचि ३. आज्ञारुचि ४. सूत्ररुचि ५. बीजरुचि ६. अभिगमरुचि ७. विस्तारुचि ८. क्रियारुचि ९. संक्षेपरुचि और १०. धर्मरुचि ।
विशेष - उत्तराध्ययन सूत्र के २८वें अध्ययन की गाथा १७ से २७ तक इन दशविध रुचियों के लक्षण दिये गये हैं ।
(६) निस्संकिय-निक्कंखिय- निव्वितिगिच्छा अमूढदिट्ठी य । उवबूह-थिरीकरणे वच्छल्लपभावणे अट्ठ ।। उत्तरा. २८.३१
सम्यक्त्व के आठ अंग या आचार हैं, यथा- १. निःशंकित २. निष्कांक्षित ३. निर्विचिकित्सा ४. अमूढदृष्टि ५. उपबृंहण ६. स्थिरीकरण ७. वात्सल्य और ८.
प्रभावना ।
(७) नाणेण जाणइ भावे, दंसणेण य सद्दहे ।
चरित्रेण निगिण्हाइ, तवेण परिसुज्झइ ।। उत्तरा २८.३५
(जीव) ज्ञान से भावों (पदार्थों) को जानता है, दर्शन से उन पर श्रद्धान करता है, चारित्र से आस्रव का निग्रह करता है तथा तप से विशुद्ध होता है ।
(८) दंसणसंपन्नयाए णं भंते! जीवे किं जणयइ ?
दंसणसंपन्नयाए णं भवमिच्छत्त-छेयणं करेइ । परं न विज्झायइ । परं अविज्झाएमाणे अणुत्तरेण नाणदंसणेणं अप्पाणं संजोएमाणे, सम्मंभावेमाणे विहरइ । - उत्तरा २९.६१
भगवन् ! दर्शनसम्पन्नता से जीव क्या प्राप्त करता है ?
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दर्शन-सम्पन्नता से जीव संसार के हेतुभूत मिथ्यात्व का छेदन करता है, उत्तरकाल में उसका ज्ञान-प्रकाश बुझता नहीं है, फिर वह अनुत्तर ज्ञान - दर्शन से आत्मा को संयोजित करता हुआ सम्यक् प्रकार से भावित करता हुआ विचरण करता है । (९) पिज्ज-दोस- मिच्छादंसणविजएणं भंते! जीवे किं जणयइ ? पिज्ज-दोस- मिच्छादंसणविजएणं नाण- दंसण-चरिताराहणाए अब्भुट्ठेइ । अट्ठविहस्स कम्पगंठि-विमोयणाए तप्पढमयाए जहाणुपुवीए अट्ठावीसइ-विहं मोहणिज्जं कम्मं उग्घाएड् पंचविहं नाणावरणिज्जं नवविहं दंसणावरणिज्जं, पंचविहं अंतराइयं-एए तिन्नि वि कम्मंसे जुगवं खवेइ । तओ पच्छा अणुत्तरं अनंतं, कसिणं, पडिपुण्णं, निरावरणं वितिमिरं विसुद्धं लोगालोगप्पभावगं केवल-वर-नाणदंसणं समुप्पावेइ । - उत्तरा २९.७२
कम्मस्स
भगवन् ! राग, द्वेष एवं मिथ्यादर्शन पर विजय से जीव क्या प्राप्त करता है ?
राग, द्वेष और मिथ्यादर्शन पर विजय से ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना के लिए उद्यत होता है । फिर वह आठ प्रकार के कर्मों की कर्मग्रन्थि को खोलने के लिए उनमें से सर्वप्रथम यथानुक्रम से अट्ठाईस प्रकार के मोहनीय कर्म का घात करता है, पांच प्रकार के ज्ञानावरणीय कर्म का, नौ प्रकार के दर्शनावरणीय कर्म का और पांच प्रकार के अन्तराय कर्मों का युगपत् क्षय कर देता है । तत्पश्चात् प्रधान, अनन्त, सम्पूर्ण, परिपूर्ण, आवरणरहित, अन्धकार रहित, विशुद्ध, लोक और अलोक के
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