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________________ सम्यग्दर्शन : परिशिष्ट ४२७ प्रकाशक, केवल ज्ञान और केवल दर्शन को प्राप्त कर लेता है। (१०) कुप्पवयण-पासंडी, सव्वे उम्मग्ग-पट्ठिया। सम्मग्गं तु जिणक्खायं, एस मग्गे हि उत्तमे ॥ उत्तरा. २३.६३ कुप्रवचन को मानने वाले सभी पाखण्डी व्रतधारी लोग उन्मार्ग की ओर प्रमाण करने वाले हैं, सन्मार्ग तो जिनेन्द्र-कथित है, और यही उत्तम मार्ग है। (११) मिच्छादंणरत्ता सनियाणा हु हिंसगा। इय जे मरंति जीवा, तेसिं पुण दुल्लहा बोही ।। सम्मदंसणरत्ता, अनियाणा सुक्कलेसमोगाढा। इय जे मरंति जीवा, सुलहा तेसिं भवे बोही । मिच्छादसणरत्ता, सनियाणा कण्हलेसमोगाढा । इय जे मरंति जीवा, तेसिं पुण दुल्लहा बोही ॥ उत्तरा.३६.२५७-२५९ जो जीव मिथ्यादर्शन में अनुरक्त, सनिदान और हिंसक होते हैं, तथा इस प्रकार जो मरण को प्राप्त होते हैं, उन्हें बोधि दुर्लभ होती है। ___जो जीव सम्यग्दर्शन में अनुरक्त, निदान रहित एवं शुक्ललेश्या में अवगाढ़ रहते हैं तथा इस प्रकार जो मरण को प्राप्त होते हैं उन्हें बोधि सुलभ होती है। ___जो जीव मिथ्यादर्शन में अनुरक्त, निदान रहित और कृष्णलेश्या में अवगाढ होते हैं, तथा इस प्रकार जो मरण को प्राप्त होते हैं उन्हें भी बोधि दुर्लभ होती है। (१२) संवेगेणं भंते ! जीवे किं जणयइ? संवेगेणं अणुत्तरं धम्मसद्धं जणयइ। अणुत्तराए धम्मसद्धाए संवेगं हव्वमागच्छइ। अणंताणुबंधि-कोह-माण-माया-लोभे खवेइ। नवं च कम्मं न बंधइ। तप्पच्चइयं च णं मिच्छत्तविसोहिं काऊण दंसणाराहए भवइ। दंसणविसोहीए य णं विसुद्धाए अत्थेगइए तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झइ । सोहीए य णं विसुद्धाए तच्चं पुणो भवग्गहणं नाइक्कमइ ।-उत्तरा. २९.२ भगवन् ! संवेग (मोक्षाभिलाषा) से जीव को क्या प्राप्त होता है? संवेग से जीव धर्म (श्रुतचारित्र रूप धर्म) पर अनुत्तर श्रद्धा को प्राप्त होता है। अनुत्तर धर्मश्रद्धा से संवेग शीघ्र आता है, पुष्ट होता है। इससे अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया एवं लोभ का क्षय करता है फिर नये कर्मों का बंध नहीं करता है। उस अनन्तानुबन्धी कषाय-क्षय के निमित्त से वह मिथ्यात्व की विशुद्धि करके दर्शनाराधक होता है। दर्शन-विशोधि के द्वारा विशुद्ध होने से कई भव्य जीव उसी जन्म में सिद्ध हो जाते हैं और कुछ ऐसे हैं जो दर्शन-विशोधि से विशुद्ध होने पर (क्षायिक सम्यक्त्व होने पर) तीसरे भव का तो अतिक्रमण नहीं करते, (अर्थात् तृतीय जन्म में तो उनका अवश्य ही मोक्ष हो जाता है) (१३) निव्वेएणं भंते ! जीवे किं जणयइ? निव्वेएणं दिव्व-माणुस-तेरिच्छिएसु कामभोगेसु निव्वेयं हव्वमागच्छइ। सव्वविसएसु विरज्जइ । सव्वविसएसु विरज्जमाणे आरंभपरिच्चायं करेइ। आरम्भपरिच्चायं करेमाणे संसारमग्गं वोच्छिदइ सिद्धिमग्गे पडिवन्ने य भवई ।-उत्तरा. २९.३ भगवन् ! निर्वेद से जीव क्या प्राप्त करता है? निर्वेद से देव, मनुष्य और तिर्यञ्चसम्बन्धी कामभोगों से शीघ्र ही Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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