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धर्म के दोहे
र सत्यनारायण गोयनका अंध भक्ति ना धर्म है, नहीं अंधविश्वास। बिन विवेक श्रद्धा जगे, करे धर्म का नाश ।। सम्प्रदाय के जहर से, बगिया हुई बीरान । फिर बसंत जग में जगे, जगे धरम का ज्ञान ॥ धर्म न छाप तिलक में, धर्म न तुलसी माल । धर्म कमण्डल में नही, धर्म नहीं मृग छाल । धर्म न दाढी मूंछ में, धर्म न घोटम घोट । पनपे पाप प्रवंचना, इन धोखों की ओट ॥ धर्म न मिथ्या रूढियां, धर्म न मिथ्याचार । धर्म न मिथ्या कल्पना, धर्म सत्य का सार ।। शुद्ध धर्म तो एक है, छिलके हुए अनेक । छिलके तो निस्सार हैं, सार धर्म का देख॥ जात पांत ना धर्म है, धर्म न छुआ छूत। धर्मपंथ पर जो चले. मंगल जगे अकत ।। सम्प्रदाय का , जाति का, जहां भेद ना होय । जो सबका, सबके लिए शुद्ध धर्म है सोय ।। सम्प्रदाय ना धर्म है, धर्म न बने दीवार । धर्म सिखाये एकता, धर्म सिखाये प्यार । अपना भी होवे भला, भला जगत का होय । जिससे सबका हो भला, शुद्ध धरम है सोय ।। धर्म न हिन्दू बौद्ध है, सिक्ख न मुस्लिम जैन । धर्म चित्त की शुद्धता, धर्म शांति सुख चैन ।। सम्प्रदाय को धर्म जो, समझ रहा वह मूढ़। धर्मसार पाया नहीं, पकडे छिलके रूढ़ ॥ धर्म सदा मंगल करे, धर्म करे कल्याण । धर्म सदा रक्षा करे, धर्म बड़ा बलवान ।। धर्म न मंदिर में मिले, धर्म न हाट बिकाय । धर्म न ग्रन्थों में मिले, जो धारे सो पाय ।। पाली संस्कृत हीबरू, अरबी बोले कोय । भाषा होवे भिन्न , पर भाव धर्म का होय ॥ सदाचरण ही धर्म है, दुराचरण ही पाप । सदाचरण सुख ही जगे, दुराचरण दुःख ताप ।। धर्म धार निर्मल बने, राजा हो या रंक। रोग शोक चिंता मिटे, निर्भय होय निश्शंक ॥
-विपश्यना शोध संस्थान, धम्मगिरि, इगतपुरी -४२२ ४०३
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