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सम्यग्दर्शन : विविध
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जैसी शूद्र करार दिये जाने के भय से धर्म ब्राह्य हुए जा रहे थे उनके स्थितिकरण के लिए ही आचार्य जिनदेव को आदिपुराण में हवन और यज्ञोपवीत की वैदिक क्रियाओं का जैनीकरण करना पड़ा था। हवन की परिपाटी वैदिकों से ही ली गई । इस बात का समर्थन अन्य कई विद्वानों ने भी किया है । विकृतियों के परिणामस्वरूप स्थिति यह हो गई कि सिद्धान्ताचार्य पं. कैलाशचन्द्रजी शास्त्री के शब्दों में 'आज तो ईश्वर-भक्ति और जिन- भक्ति में कोई अन्तर नहीं रहा । वीतरागी जिन भी सृष्टि कर्ता - हर्ता ईश्वर के प्रतिरूप बन बैठे हैं ।'
किसी समय जैन आचार्यों की परिस्थितियों की मजबूरी से शास्त्रों में द्रव्यपूजा, आवाहन, विसर्जन आदि क्रियाओं का जैनीकरण करना पड़ा था । परन्तु वे जैन धर्म सम्मत नहीं होने से इस वैज्ञानिक, बुद्धिवादी और धार्मिक स्वतंत्रता के इस परिवर्तित समय में त्यागने योग्य हैं । भगवान् महावीर ने ईश्वर कर्तृत्व के विरुद्ध क्रांति की थी, परन्तु अष्ट द्रव्य पूजा आदि तो तीर्थंकरों में कर्तृत्व को ही पुष्ट करती हैं अतः वे तो उपासना पद्धति का विकार हैं, उन्हें उपासना पद्धति का विकास या व्यवहार धर्म नहीं कहा जा सकता । जो भक्ति प्रदर्शन, आचार व क्रियाकाण्ड हमारे पुरुषार्थ को जगाने के बजाय तीर्थंकरों के प्रति कर्तृत्व भावना को ही पुष्ट करते हैं । आवाहन, विसर्जन भी व्यर्थ की क्रियाएं हैं- हिन्दू धर्म वाले इस बात को मानते हैं कि देवता बुलाने से आते, बैठते और चढ़ा हुआ द्रव्य ग्रहण करके वापस चले जाते है और उनके यहां वेदों तक में ऐसी पूजायें पाई जाती हैं। परन्तु जैन तीर्थंकर तो मुक्त हो चुके हैं, वे न तो हमारे द्वारा बुलाए जाने पर आ सकते हैं और न जा सकते हैं, अतः उनका आवाहन, विसर्जन करने व उनके आगे द्रव्य चढ़ाने का कोई औचित्य नहीं है । बारहवीं शताब्दी से पूर्व आवाहन व विसर्जन का उल्लेख किसी जैन शास्त्र में नहीं मिलता । परन्तु हिन्दू देवी-देवताओं की तरह हमने उन्हें भी पूजा के लिए बुलाना, बिठाना, उनसे याचना करना और विदा करना शुरू कर दिया और हिन्दू धर्म की पंचायतन पूजा की नकल कर हमारे यहां भी विसर्जन पाठ का निर्माण कर लिया। पंचायतन पूजा का सम्बन्धित अंश निम्नानुसार है- 'आवाहनं न जानामि, न जानामि तवार्चनम्। पूजां चैव न जानामि, क्षमस्व परमेश्वर ॥ मंत्र - हीनं क्रिया-हीनं, भक्ति-हीनं सुरेश्वर । यत्पूजितं मया देव, परिपूर्णं तदस्तु मे । यदक्षर - पदभ्रष्टं, मात्राहीनं च यद्भवेत् । तत्सर्वं क्षम्यताम् देव, क्षमस्व परमेश्वर ।' इसकी तुलना में शांति पाठ के अन्त में दिया हुआ विसर्जन का अंश निम्नानुसार है - 'आवाहनं न जानामि, नैव जानामि पूजनम् । विसर्जनं न जानामि, क्षमस्व परमेश्वर | मंत्रहीनं क्रियाहीनं, द्रव्यहीनं तथैव च । तत्सर्व क्षम्यतां देव, रक्ष रक्ष जिनेश्वर ॥'
उपर्युक्त दोनों का मिलान करने पर स्पष्ट रूप से प्रतीत होता है कि पूजा के समय तीर्थंकरों को बुलाने, बिठाने व विसर्जन करने की परिपाटी जैनियों ने हिन्दू धर्म से ही ली है ।
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