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________________ ४२२ जिनवाणी-विशेषाङ्क करते हैं, प्रतिमा के सामने ज्योति जलाते हैं, आरती करते हैं, सिद्ध चक्र आदि मंडल मंडवाते हैं, प्रक्षाल के नातने की लोरी गले में बांधते व उसके जल को ललाट व गले में लगाते हैं। आजकल तो आचमन की तरह उसे पीने लग गये है, मिठाई आदि भी चढ़ाने लगे हैं और उसे प्रसाद के रूप में प्रभावना के नाम से बांटा जाता है। यही नहीं, उन्हें कर्ता-हर्ता ईश्वर की तरह मानकर अपने कार्यों की सिद्धि के लिए बोलारियाँ भी बोलते हैं। चाहे पूजा करने की भावना वाला कोई न हो, और न पूजा को सुनने वाले हों, फिर भी भगवान् की पूजा आवश्यक समझ कर किसी नौकर या फालतू व्यक्ति द्वारा पूजा कराई जाती है, मानों भगवान् को पूजा सुनने की गरज हो। व्यक्तिगत भावना न होते हुए भी मन्दिर की पंचायत के लोगों द्वारा बारी-बारी से पूजा कराने का भी यही उद्देश्य है कि भगवान् बिना सेवा-पूजा न रह जावें। इस प्रकार अष्ट द्रव्य पूजा के कारण पैदा हुआ ईश्वरवादियों का सा पूज्य पूजक भाव अनेक विकृतियों की जड़ है। जब तक इस जड़ को नष्ट नहीं करेंगे, विकृतियाँ मिटना तो दूर वे बढ़ती ही जावेंगी। प्रकांड विद्वान् स्व. पं. चैनसुखदासजी न्यायतीर्थ ने वीरवाणी के अपने सम्पादकीय लेख में लिखा था 'वर्तमान में हमारे मंदिरों में द्रव्य पूजा की परम्परा चालू है। वह वीतरागता से तो दूर है ही, किन्तु निरवद्यता से भी काफी दूर चली गई है। उसमें जो विपुल परिमाण में सावधता घुली हुई है वह जैन धर्म के मौलिक रूप के साथ कोई मेल नहीं खाती।' विद्यावारिधि डा. ज्योतिप्रसादजी जैन ने 'जैन संदेश' के शोधांक दि. २३.२.७८ में भक्तिवाद की उत्पत्ति मध्यकाल में रामानुजाचार्य आदि के प्रभाव से मानते हुए लिखा था, 'इस प्रकार जैन मन्दिरों में भी भक्ति उपासना के ढोल और मंजीरे खटकने लगे। कीर्तन और करतल ध्वनि होने लगी और भक्ति साहित्य रचा जाने लगा। जैनाचार के क्षेत्र में इस भक्ति उपासना के प्रवेश ने आचार की मूल आत्मा का हनन अवश्य किया। अब जैन धर्म में पंचवतों का पालना उतना मुख्य नहीं रहा, जितना कि मन्दिर और चैत्य बनवाना, मूर्तियां प्रतिष्ठित करवाना और फिर उन मूर्तियों के सामने पूरा कीर्तन करते हुए मदमस्त हो जाना मुख्य हो गया। ....एक बड़ा भारी नुकसान यह हुआ कि जैन धर्म की आचार संबंधी जो प्रमुख विशेषता थी वह गौण हो गई और जैन साधु अधिकांशतः कुछ आडम्बरों और चोंचलों के शिकार होकर समाज की मुख्य धारा से कट गये।' विकृतियाँ कैसे आईं-भगवान महावीर के बाद बहुत समय धार्मिक असहिष्णुता का रहा था। जब ईश्वर कर्तृत्ववादी धर्म का प्रभाव बहुत बढ़ गया उस समय बौद्ध धर्म तो भारत में अस्तित्वहीन ही हो गया। जैनियों पर भी बहुत अत्याचार हुए और जैसा कि अजैन इतिहासकारों ने भी लिखा है-जीतेजी घाणी में पिलवा दिये गये और हजारों जैन मंदिर और मूर्तियाँ नष्ट कर दी गईं। ऐसे संकट के समय में जैन धर्मावलम्बियों को धर्म बाह्य होने से बचाने के लिये जैनाचार्यों को ईश्वर कर्तृत्ववादी धर्म की पूजा, आवाहन, विसर्जन आदि बहुत सी बातों का जैनीकरण करना पड़ा, तथा अन्य नई परम्पराएं उनके कारण बढ़ती जा रही हैं। हवन व यज्ञोपवीत के सम्बन्ध में तो मूर्धन्य विद्वान ब्र. पंडित जगन्मोहनलालजी शास्त्री ने भी लिखा है कि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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