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सम्यग्दर्शन : विविध
४२१ स्तवः प्राज्ञैवंदना सप्रतिक्रमा। प्रत्याख्यानं तनूत्सर्गः षोढावश्यकमीरितम्', प्राचीनकाल में साधु और श्रावक के षडावश्यक थे-सामायिक, स्तवन, वंदना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान
और कायोत्सर्ग। साधु और श्रावक दोनों अपनी-अपनी शक्ति के अनुसार इनका पालन करते थे। इस प्रकार प्राचीनकाल में अरहंतों की उपासना स्तवन, वंदन के रूप में ही थी, अष्ट द्रव्यपूजा के रूप में नहीं थी, क्योंकि साधु और श्रावक के षडावश्यक एक ही थे और साधु के पास अष्ट द्रव्य होने का प्रश्न ही नहीं था। इसके प्रतिपादन में ज्योतिषाचार्य स्व. डा. नेमीचंदजी जैन, आरा ने श्री भँवरीलाल बाकलीवाल स्मारिका के पृष्ठ २३७ से २४० पर प्रकाशित अपने लेख में लिखा था, 'सिद्ध है कि प्रारंभ में गुणस्मरण और स्तवन के रूप में भक्ति भावना प्रचलित थी ....पूजन के अष्ट द्रव्यों की संख्या छठवीं शती के पश्चात् ही निर्धारित हुई मालूम पड़ती है।' 'षडावश्यकों एवं मूर्ति निर्माण में विकृतियाँ' पुस्तिका में पं. भंवरलालजी पोल्याका जैनदर्शनाचार्य साहित्यशास्त्री ने भी प्रमाणित किया है कि देवपूजा को श्रावकों के लिए षडावश्यकों में स्थान सर्वप्रथम भ. महावीर के १५०० वर्ष बाद हुए आचार्य पद्मनंदि और सोमदेव ने दिया था। मूर्धन्य विद्वान् सिद्धांताचार्य पं. कैलाशचन्द्रजी शास्त्री ने भी जैन संदेश दि. ७.२.८५ के अपने संपादकीय लेख में लिखा है 'जैन धर्म मूल से क्रियाकांडी धर्म नहीं है। प्राचीन शास्त्रों में पूजा विधि का उल्लेख नहीं मिलता। पात्रकेसरी-स्तोत्र में कहा है-“भगवन् चैत्य-दान-पूजन आदि क्रियाओं का आपने उपदेश नहीं दिया। यह तो आपके भक्त श्रावकों ने स्वयं उनका अनुष्ठान किया है। प्राचीन काल में मुनियों
और श्रावकों के षट् कर्मों में भेद नहीं था। यह तो उत्तर काल में हुआ है। आचार्य अमितगति ने अपने श्रावकाचार में कहा है 'शरीर और वचन को लगाना द्रव्य पूजा है और मन को लगाना भाव पूजा है। इस तरह मन-वचन-काय के संकोच को ही भावपूजा और द्रव्यपूजा कहा जाता है। आज की प्रचलित द्रव्यपूजा उत्तरकाल की उपज है।" उपर्युक्त से सिद्ध है कि प्रचलित अष्टद्रव्य पूजा प्राचीन नहीं है। अष्ट द्रव्य पूजा अनेक विकृतियों की जड़-तीर्थंकर तो मुक्त हो गये, हमारे सामने नहीं हैं। अतः हम उनकी प्रतिमाओं का निर्माण केवल उनके गुणों की स्मृति दिलाने के लिए करते हैं। उदाहरण के लिए, हमने अपने कमरे में अपने स्वर्गीय पिताजी का चित्र लगा रखा है। उसे देखकर हमारे हृदय में उनके प्रति आदर व विनय पैदा होगा और उनके आदर्शों व उपदेशों को जीवन में उतारने की भावना भी पैदा होगी। परन्तु यदि उस चित्र को ही साक्षात् पिता मानकर पितृ-भक्ति के नाम पर पिता के योग्य परिचर्या उस चित्र की भी करने लग जावें तो हमें मूर्ख ही माना जावेगा। इसी प्रकार तीर्थंकर प्रतिमाएँ भी उनके गुणों का स्मरण दिलाने की साधन मात्र हैं। उन प्रतिमाओं को ही साक्षात् तीर्थंकर मानकर उनकी भक्ति के नाम पर, उन प्रतिमाओं के गर्भ, जन्म आदि पांच कल्याणक व पूजा, अभिषेक करना निरा अज्ञान ही है। अतः अष्ट द्रव्य पूजा के परिणाम स्वरूप उनके प्रति हममें ईश्वरवादियों का सा पूज्य-पूजक भाव पैदा हो गया, अनेक विकृतियाँ पैदा हो गईं व नई नई पैदा होती जा रही हैं। हममें से अनेक उन्हें अलंकारों से सजाते हैं व छत्र, चवर आदि उपकरण चढ़ाते हैं, उनका पंचामृत अभिषेक करते हैं, आवाहन विसर्जन
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