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सम्यग्दर्शन : शास्त्रीय-विवेचन । सकता। सम्यग्दर्शन-प्राप्ति के कारण
सम्यग्दर्शन-प्राप्ति के दो कारण हैं-नैसर्गिक और आधिगमिक। निसर्ग का अर्थ स्वभाव है। जब कर्मों की स्थिति न्यून होते-होते एक कोटा-कोटि सागरोपम से भी कम रहती है तो दर्शनमोह की तीव्रता में कमी आ जाती है। तब बिना परोपदेश के ही जो तत्त्वरुचि समुत्पन्न होती है, यथार्थ दर्शन होता है वह नैसर्गिक सम्यग्दर्शन है। श्रवण, मनन, अध्ययन या परोपदेश से सत्य के प्रति जो निष्ठा जागृत होती है, वह आधिगमिक सम्यग्दर्शन है। ये दोनों भेद बाह्य निमित्त विशेष के कारण ही हैं ! दर्शनमोह का विलय दोनों प्रकार के सम्यग्दर्शन में अनिवार्य है।
एक यात्री यात्रा के लिए प्रस्थित हुआ। मार्ग भूल गया। वह इधर से उधर भटकने लगा। अन्त में स्वतः ही पथ पर आ गया । यह नैसर्गिक पथ-लाभ हुआ। एक दूसरा यात्री यात्रा के लिए चला। पथभ्रष्ट होकर इधर-उधर भटकता रहा। पथ-प्रदर्शक से मार्ग पूछकर वह उस पर आरूढ़ हुआ। यह आधिगामिक पथ-लाभ हुआ। ठीक इसी तरह नैसर्गिक और आधिगमिक सम्यग्दर्शन है।
आचार्य जिनसेन के अभिमतानुसार देशनालब्धि, काललब्धि-ये सम्यग्दर्शन की उपलब्धि के बहिरंग कारण हैं और करणलब्धि अन्तरंग कारण है। जब दोनों की प्राप्ति होती है तभी भव्य जीव सम्यग्दर्शन को धारण करते हैं। तीन आत्माएं
संसार में जितनी आत्माएं हैं उन्हें तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है, बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा। बहिरात्मा पूर्ण रूप से बहिर्मुखी होता है। मिथ्यात्व मोहनीय कर्म की प्रबलता से वह आत्मदेव के दर्शन नहीं कर पाता। वह पर-रूप को स्व-रूप समझता है। जैसे दिग्भ्रान्त मानव पश्चिम को पूर्व मानकर चलता है और अपनी मंजिल से दूर होता चला जाता है वैसे ही भ्रमग्रस्त बहिरात्मा भी सुख-प्राप्ति के स्थान पर दुःख के दलदल में फंसता चला जाता है। सभी बहिरात्माओं में मोह की मात्रा एक सदृश नहीं होती। उसमें असंख्य प्रकार का तारतम्य होता है। इस विराट् विश्व में परिभ्रमण करते हुए भयानक कष्टों को सहन करते हुए कभी ऐसा अवसर आता है, जिसमें मोह का आवरण शिथिल हो जाता है, अकाम-निर्जरा से अन्य कर्मों की स्थिति भी न्यून हो जाती है। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तराय की उत्कृष्ट स्थिति तीस कोटाकोटि सागरोपम की है। नाम और गोत्र कर्म की उत्कृष्ट स्थिति बीस कोटाकोटि सागरोपम की है। आयु कर्म की स्थिति तेंतीस सागरोपम की है और मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोटाकोटि सागरोपम की है। तीन करण
आयुकर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों की स्थिति जब एक कोटाकोटि सागरोपम से भी कुछ न्यून रह जाती है तब आत्मा में एक सहज वीर्यशक्ति उल्लसित होती है। ऐसे अवसर पर आत्मा में जो विशिष्ट परिणाम उत्पन्न होता है वह यथाप्रवृत्तिकरण है।
उपाध्याय विनयविजय जी ने 'करण' शब्द पर चिन्तन करते हुए कहा है-'जीव
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