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________________ जिनवाणी- विशेषाङ्क २८ का परिणाम ही करण है।' यथाप्रवृत्तिकरण के दो भेद हैं- सामान्य यथाप्रवृत्तिकरण और विशिष्ट यथाप्रवृत्तिकरण | सामान्य यथाप्रवृत्तिकरण अभव्य जीव को भी हो सकता है, किन्तु विशिष्ट यथाप्रवृत्तिकरण भव्य को ही होता है । जब राग-द्वेष का बन्धन शिथिल हो जाता है तब ऐसा विशुद्ध परिणाम पहले कभी प्राप्त नहीं हुआ, वह प्राप्त होता है । इसलिए इसे अपूर्वकरण कहते हैं । राग-द्वेष के अत्यन्त मलिन परिणाम ग्रन्थि कहलाते हैं। उस ग्रन्थि का भेदन अपूर्वकरण के बिना नहीं होता । आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने कहा है- - सघन राग-द्वेष रूप आत्म परिणाम ही ग्रन्थि है । प्रस्तुत ग्रन्थि अत्यन्त कठिनाई से भेदन की जा सकती है। गुप्त बांस की ग्रन्थि के समान इस ग्रन्थि का भेदन करना सरल नहीं है। अपूर्वकरण के द्वारा हो ग्रन्थिभेदन होता है । ग्रन्थिभेदन होते ही भ्रांति की सघन घटाएं छिन्न-भिन्न हो जाती हैं और अनिवर्चनीय अनुभूत लोकोत्तर निर्मलता व्याप्त होती है । यह अनिवृत्तिकरण है । यही सम्यक्त्व-प्राप्ति का द्वार हैं 1 सम्यग्दर्शन के पांच लक्षण सम्यग्दर्शन की ज्यों ही उपलब्धि होती है त्यों ही उस आत्मा में नवीन आलोक उत्पन्न होता है। जिससे उसके जीवन और व्यवहार में भी आमूलचूल परिवर्तन हो जाता है। मनीषियों ने सम्यग्दर्शन की पहचान कराने वाले पांच लक्षण बताये हैं- प्रशम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्तिक्य । प्रशम-अनादि काल से आत्मा में कषाय की आग धधक रही है। मिथ्यात्व स्थिति में कषाय तीव्रतम होता है, पर मिथ्यात्व का अन्त होते ही अनन्तानुबन्धी कषायों का भी अन्त हो जाता है और उसके द्वारा उत्पन्न संताप भी नष्ट हो जाता है। आत्मा में अनिर्वचनीय शांति की अनुभूति होती है । तत्त्वों के असत् पक्षपात से होने वाले कदाग्रह प्रभृति दोषों का उपशमन ही प्रशम है । संवेग - सांसारिक बन्धनों का भय संवेग है। सम्यक्त्वी जीव में किसी भी प्रकार का भय नहीं होता । उसके रग-रग में निर्भयता होती है, निर्द्वन्द्वता होती है । यों कभी भी उसके कदम नहीं लड़खड़ाते पर पापकारी प्रवृत्ति करते समय वह हिचकिचाता है, भयभीत होता है । सम्यग्दर्शन से जो सात्त्विकता उत्पन्न हुई है उससे उसके वेग में परिवर्तन हो जाता है । पहले जो वेग सांसारिक पदार्थों को प्राप्त करने की ओर था, वह मोक्ष मार्ग की ओर हो जाता है, वही संवेग है 1 निर्वेद - विषयों में आसक्ति का न्यून होना निर्वेद है । सम्यग्दृष्टि का आत्मस्वरूप में आकर्षण होता है ! चक्रवर्ती का साम्राज्य और इन्द्रों के कमनीय भोगों को भी वह काक बीट के समान समझता है । इसीलिए कवि ने कहा है चक्रवर्ती की संपदा, इन्द्र सरीखा भोग । काक-बीट सम गिनत है. सम्यक् दर्शी लोग ॥ भ्रमर सुगन्धित सुमनों पर मंडराता है मगर जब भी उसकी उड़ने की इच्छा होती है वह उड़ जाता है । उसके लिए कोई बन्धन नहीं होता । सम्यग्दृष्टि भी भ्रमर के समान होता है । एतदर्थ ही वह पाप से लिप्त नहीं होता । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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