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________________ २६ जिनवाणी-विशेषाङ्क बत्तीस दांतों के बीच जीभ एक बार विभीषण से हनुमान ने यह जिज्ञासा प्रस्तुत की कि आप लंका में कैसे रहते हैं, यहां तो राक्षसों का साम्राज्य है, जो बड़े ही उच्छंखल प्रकृति के हैं। उत्तर में विभीषण ने कहा-“पवनसुत ! मैं उसी तरह सावधान रहता हूँ जैसे बत्तीस दांतो के बीच जीभ सावधानी से रहती है।" सम्यग्दृष्टि भी ससार में इसी प्रकार रहता है। अनुकूलता-प्रतिकूलता का प्रभाव नहीं सम्यग्दृष्टि का शरीर संसार में रहता है, किन्तु मन मोक्ष की ओर रहता है: सम्यग्दर्शन वह अद्भुत शक्ति है जिसके संस्पर्श से अनुकूलता व प्रतिकूलता में हर्ष-विषाद नहीं होता। अनन्त गगन में उमड़-घुमड़कर घटाएं आती हैं, किन्तु उन घटाओं का गगन पर असर नहीं पड़ता। वैसे ही सम्यग्दणि के मानसरूपी गगन पर अनुकूलता और प्रतिकूलता का प्रभाव नहीं पड़ता। वह उस शिव की तरह होता है जो दुःख के जहर को पीकर भी अचल, अडोल व अडिग रहता है। वह विष उस पर कोई प्रभाव नहीं डालता। वह कष्टों का अनुभव करते हुए भी यह सोचता है कि ये दुःख के कांटे मैंने ही बोये हैं, मेरे कर्म का फल हैं । फिर मैं क्यों घबराता हूँ। जो व्यक्ति सरोवर में गहरी इबका लगाता है उस व्यक्ति को उस समय गर्म लू का असर नहीं होता ! जो साधक सम्यग्दर्शनरूपी सरोवर में अवगाहन करता हो उस पर भवताप का असर नहीं होता। ममता की मद्रा ___जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति में दो नदियों का उल्लेख आता है। एक उन्मग्नजला नदी है और दूसरी निमग्नजला नदी है। उन्मग्नजला नदी अपने पास कुछ भी नहीं रखती। जो कुछ भी वस्तु उसमें गिरती है उसे वह उछाल कर बाहर फेंक देती है। पर निमग्नजला नदी उससे बिल्कुल विपरीत स्वभाव की है। उसमें जो भी वस्तु पड़ जाती है वह उस वस्तु को अपने में समा लेती है। किनारे पर जो भी वस्तु हो, उसे भी खींच लेती है। सम्यक्दृष्टि उन्मग्नजला नदी के सदृश होता है। उसके अन्तर्मानस में जो भी रागात्मक और द्वेषात्मक विकल्प उठते हैं वह उन्हें बाहर निकालकर फेंक देता है, पर मिथ्यादृष्टि निमग्नजला नदी का साथी है। वह उन्हें ग्रहण कर उन पर ममता की मुद्रा लगा देता है। नौका जल पर चलती है, उसके नीचे विराट् सागर का अथाह जल रहता है, पर नौका में कहीं बाहर का जल नौका को कोई क्षति नहीं पहुंचाता। पर वही जल जब नौका में प्रविष्ट हो जाय तो नौका को ले डूबता है । जो जल नौका उद्धारक था वही संहारक बन जाता है। भव-परम्परा का उच्छेद रात्रि के सघन अन्धकार में विद्युत की रेखा चमकती है तो एक क्षण में अंधकार नष्ट हो जाता है। वैसे ही सम्यग्दर्शन के अल्प प्रकाश से भी अनन्तकाल से गहराया हुआ मिथ्यात्व का अंधकार क्षण भर में विनष्ट हो जाता है और जिसने एक क्षण के लिए भी सम्यग्दर्शन का अनुभव कर लिया वह निश्चय ही मुक्त होता है। अनादिकाल से जो जन्म-मरण की परम्परा चल रही है उस परम्परा को सम्यग्दर्शन नष्ट कर देता है। सम्यग्दर्शन के अभाव में भव-परम्परा का कभी उच्छेद नहीं हो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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