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________________ सम्यग्दर्शन: शास्त्रीय-विवेचन सड़ते नहीं; किन्तु वे मोती हंस के मुंह में जाते ही गल जाते हैं, नष्ट हो जाते हैं। वैसे ही सम्यक् दृष्टि साधक जो हंस के सदृश है वह अपनी लघक्रिया से कर्मरूपी मोती को गला देता है। एक मजदूर है। दूसरा कारीगर है। मजदूर कठिन श्रम करके भी जितना पैसा कमा नहीं पाता उतना कारीगर कुल श्रणों में कमा लेता है। वैसे मिथ्यादृष्टि वर्षों तक साधना करके भो उतने कर्मों को नष्ट नहीं कर पाता जितने कम सम्यग्दृष्टि कुछ क्षणों की साधना से नष्ट कर लेता है। आध्यात्मिक साधना का द्वार ___ आध्यात्मिक साधना के भव्य भवन में प्रवेश करने के लिए द्वार के सदृश सम्यग्दर्शन है। बिना सम्यग्दर्शन के साधना के भव्य भवन में प्रवेश नहीं हो सकता। दर्शन आत्मा का गुण है। सम्यक् और मिथ्यात्व ये दोनों पर्याय हैं। अनन्तकाल से दर्शन मिथ्यात्व के साथ होने से वह मिथ्या दर्शन के रूप में रहा। जब उसका संस्पर्श सम्यक्त्व के साथ होता है तो वहीं दर्शन सम्यग्दर्शन बन जाता है। मिथ्यात्व का फल संसार है और सम्यग्दर्शन का फल मोक्ष है। जैसे अंधकार में कुछ भी दिखाई नही देता पर ज्यों ही प्रकाश जगमगाने लगता है त्यों ही सारे पदार्थ स्पष्ट दिखाई देते हैं. वैसे ही सम्यग्दर्शन का प्रकाश होते ही जड़ चेतन का भेद स्पष्ट दिखाई देता है ।। सम्यग्दर्शन की निधि ___एक भिखारी भीख मांग रहा था। एक-एक पैसे के लिए हाथ पसार रहा था, पर उसे पता नहीं था कि वह जहां बैठा है उसके नीचे विराट् सम्पत्ति है. अक्षय निधि है। भिखारी की तरह अनन्त सुख की निधि स्वयं के पास होने पर भी मिथ्यात्वी आत्मा उस दरिद्र भिखारी की तरह पर-पुद्गलो को प्राप्त करने लिए लालायित रहता है। पर यह नहीं सोचता कि सम्यग्दर्शन की निधि के सामने इसका क्या महत्त्व है। ज्ञातासूत्र में सम्यग्दर्शन को 'चिन्तामणि रत्न' की उपमा दी है। जिस व्यक्ति के पास चिन्तामणि रत्न हो उसे कोई भी वस्तु दुर्लभ नहीं है। वह चिन्तामणि रत्न के दिव्य प्रभाव से चाहे जो वस्तु प्राप्त कर सकता है। वैसे ही सम्यग्दर्शन से आध्यात्मिक उन्नति जो भी करना चाहे कर सकता है। सम्यग्दर्शन जिसे प्राप्त हो चुका है वह नरक में रहकर के भी स्वर्ग से भी अधिक सुख का अनुभव करता है। बाह्य वेदनाएं होने पर भी निज स्वरूप में रमण करता है। वह प्रतिकलता में भी अनुकूलता को निहारता है। उसका चिन्तन अधोमुखी न होकर ऊर्ध्वमुखी होता है। वह सयोग में हर्षित नहीं होता और वियोग में खिन्न नहीं होता। उसका सम्बन्ध आत्म-केन्द्र से होता है। रणक्षेत्र में वही सेना विजय-वैजयन्ती फहरा सकती है जिसका सम्बन्ध मूल केन्द्र से रहता है। भले ही वह सेना कितनो भी दूर क्यों न चली जाए, वह कभी पराजित नहीं होती। चतुर सेनापति वही है जो मूलकेन्द्र से सदा संबंध बनाये रखे। जिसका सम्यग्दर्शन रूपी मूल केन्द्र से संबंध है वह संसार में रहकर भी संसार से उसी तरह अलग-थलग रहता है जैसे कीचड़ के बीच कमल रहता है। कमल कीचड़ में ही पैदा होता है, कीचड़ में ही रहता है। उसके चारों और पानी होता है। पर वह पानी से अलग-थलग रहता है। वैसे ही सम्यग्दृष्टि संसार से उपरत रहता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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