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जिनवाणी- विशेषाङ्क
आत्मा शुद्ध स्फटिक के सदृश निर्लेप है । किन्तु कर्मरूपी फूल के संसर्ग के कारण उसका शुद्ध स्वरूप को पहचान पाना कठिन हो रहा है। प्राणी जड़ और चेतन के स्वरूप में भेद नहीं कर पा रहा है। वह जड़ को ही चेतन समझ रहा है। जड़ और चेतन में भेद विज्ञान करना ही सम्यग्दर्शन है। वही तत्त्व का यथार्थ शब्दार्थ है । स्व ओर पर का आत्मा और अनात्मा का, चैतन्य और जड़ का, जब तक भेद विज्ञान नहीं होता तब तक स्व स्वरूप की उपलब्धि नहीं होती। जब स्व-स्वरूप की उपलब्धि होती हैं तभी उसे यह भान होता है कि 'मैं शरीर नहीं हूं, इन्द्रियां नहीं हूं और न मन ही हूँ । ये तो सभी भौतिक हैं, पुद्गल हैं, जो पुद्गल हैं, वे जड़ हैं । पुद्गल अलग हैं, मैं अलग हूं। पुल की सत्ता अनन्त काल से रही है वर्तमान में है, भविष्य में भी रहेगी । पर वे अनन्तानन्त पुद्गल ममता के अभाव में आत्मा का कुछ भी बिगाड़ नहीं सकते और आत्मा एवं पुद्गल ये दोनों ही पृथक् हैं' यह पूर्ण निष्ठा ही सम्यग्दर्शन है 1 उसको जानना सम्यग्ज्ञान है और उस पुद्गल की पर्यायों को आत्मा से पृथक् कर देना सम्यक् चारित्र हैं ।
सम्यग्दर्शन अंक है
गणितशास्त्र में अंक और शून्य ये दो चीजें हैं । अंक रहित शून्य का कोई मूल्य नही होता। चाहे कितने भी शून्य हों पर अंक न होने से उनका महत्त्व नहीं होता । यदि एक अंक भी शून्य के साथ हो तो अंक का महत्त्व बढ़ जाता है और शून्य का भो । दोनों के समन्वय में ही दोनों का गौरव रहा हुआ है । सम्यग्दर्शन अंक है, और सम्यक् चारित्र शून्य है । सम्यग्दर्शन से ही सम्यक् चारित्र में तेज प्रकट होता है और वह विकास के पथ पर बढ़ता है। सम्यग्दर्शन रहित चारित्र उस अन्धे व्यक्ति की तरह है जो निरन्तर चलना तो जानता है, पर लक्ष्य का पता नहीं है। बिना लक्ष्य वह भटकता है | लक्ष्य स्थान पर नहीं पहुंचता । यदि मानव के सामने कोई लक्ष्य नहीं है तो उसकी साधना का कोई प्रयोजन भी नहीं है I
परभाव और परभव
सम्यग्दर्शन का अर्थ हैं सम्यक्त्व - सत्यदृष्टि । दूसरे शब्दों में कहें, आत्मविश्वास, श्रद्धा, आस्था और निष्ठा । निश्चयदृष्टि से 'मैं शरीर से भिन्न आत्मा हूँ, इन्द्रियां और मन से भी भिन्न हूँ, मैं चिद्रूप हूँ, जड़ रूप नहीं हूँ।' अपने इस विशुद्ध आत्म-स्वरूप को समझकर जब साधक उसमें स्थिर होता है तब उसे सच्चे सुख का अनुभव होता है । एक व्यक्ति व्यापारार्थ विदेश जाता है। वहां पर वह अपार धन कमाता है । किन्तु उसके जीवन का उद्देश्य विदेश में रहना नहीं है। वह विदेश से घर आता है । वहां पर शांति का अनुभव करता है। वैसे ही संसार में भौतिक वैभव को प्राप्त करके भी आत्मा जब तक निज स्वरूप में नहीं आता वहां तक उसे सही आनन्द का अनुभव नहीं होता। जब स्व- दर्शन होता है तो उसे प्रदर्शन की इच्छा नहीं होता । परभाव मिटते ही परभव समाप्त हो जाता है। यदि एक बार भी आत्मा अपने यथार्थ स्वरूप को समझ ले तो वह परीत संसारी बन जाता है। उसका भव-भ्रमण रुक जाता है 1 सम्यग्दर्शन और साधना
मोती हजारों वर्षों तक समुद्र में रहते हैं । पानी में रहकर के भी मोती गलते नहीं,
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