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________________ सम्यग्दर्शन : शास्त्रीय विवेचन २३ 1 नहीं आ सकती । जब स्वयं ही आत्मशक्ति पर सर्वप्रथम विश्वास होता है तभी विचार को जीवन की धरती पर उतारा जा सकता है। आचार बनता है विचार से और विचार बनता है विश्वास से । पर विश्वास, विचार और आचार कहीं बाहर से नहीं आते । वे तो आत्मा के निजगुण हैं। उन गुणों का विकास करना, जो गुण आच्छन्न हैं उन्हें प्रकाश में लाना ही स्वरूप की उपलब्धि है, और जब स्व-स्वरूप की उपलब्धि हो जाती है तब साधना सिद्धि में बदल जाती है । 1 शक्ति की अभिव्यक्ति भारतीय मूर्धन्य मनीषियों का यह अभिमत है कि आत्मा सूर्य के समान तेजस्वी है, किन्तु वह कर्म की घटाओं से घिरा हुआ है, जिससे उसके दिव्य प्रकाश पर आवरण आ चुका है। उसका विशुद्ध स्वरूप लुप्त हो चुका है। आत्मा केवल आत्मा ही नहीं, स्वयं परमात्मा है, पर ब्रह्म है, ईश्वर है। 'अप्पा सो परमप्पा' 'तत्त्वमसि' और 'सोऽहं' उसी विराट् सत्य को व्यक्त कर रहे हैं। विश्व की प्रत्येक आत्मा में शक्ति का अनन्त स्रोत प्रवाहित है । जो आत्माएं हमें दिखाई दे रही हैं वे मूल स्वरूप में वैसी नहीं हैं। वे बुद्ध अवस्था में हैं। पर एक दिन मुक्त होंगी, क्योंकि मुक्त होने की वे पूर्ण अधिकारी हैं। अधिकारी वह कहलाता है जिसे अपनी शक्ति पर पूर्ण विश्वास हो । भिखारी को अपनी शक्ति पर विश्वास नहीं होता। वह तो दूसरों की करुणा पर पनपता है। वह सतत चिन्तन करता रहता है- मुझे दूसरे से ज्योति प्राप्त होगी । आवश्यकता शक्ति की प्राप्ति की नहीं, जो अनन्त शक्ति हम में छिपी हुई है उसे अभिव्यक्त करने की है। निज शक्ति को अभिव्यक्त करने की कला ही सम्यग्दर्शन है । यह हम जानते हैं कि एक नन्हें से बीज में विराट् वृक्ष के रूप में पनपने की शक्ति रही हुई है । उस शक्ति की अभिव्यक्ति के लिए अनुकूल धरती, पानी, पवन और प्रकाश की आवश्यकता है। साधना के क्षेत्र में भी साधक को अपनी आत्मशक्ति व्यक्त करने के लिए अशुभ से शुभ में, शुभ से शुद्ध में जाना होता है स्व-स्वरूप में रमण करने के लिए मूल सत्ता पर उसे विश्वास करना होता है । सम्यग्दर्शन की परिभाषा 1 आचार्य उमास्वाति ने सम्यग्दर्शन की परिभाषा करते हुए लिखा- 'तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्' तत्त्वों का सही श्रद्धान सम्यग्दर्शन है । तत्त्वों की संख्या के संबंध में आचार्य एक मत नहीं हैं। कहीं पर नौ तत्त्व बताये गये हैं, कहीं पर सात तत्त्वों का निरूपण है तो कहीं पर दो तत्त्वों में ही सबका समावेश किया गया है। विवक्षा की दृष्टि से नौ, सात और दो का विभाजन है पर वास्तविक दृष्टि से तत्त्व दो ही हैं-जीव तत्त्व और अजीव तत्त्व । पुण्य, पाप, आस्रव और बन्ध इन चार तत्त्वों का समावेश अजीव तत्त्व के अन्तर्गत किया जा सकता है। संवर, निर्जरा और मोक्ष का अन्तर्भाव जीव तत्त्व के अन्तर्गत किया जा सकता है। इस प्रकार मुख्य रूप से दो तत्त्व हैं- चेतन और जड़ । आत्मा के असंख्य प्रदेश हैं । उन असंख्य प्रदेशों में एक-एक प्रदेश पर अनन्तानन्त कर्मों की वर्गणाएं लगी हुई हैं, जो जड़ हैं । उन वर्गणाओं के कारण आत्मा अपने निजस्वरूप को नहीं पहचान पाता । जैसे स्फटिक के पास गुलाब का फूल रखने से वह स्फटिक गुलाबी रंग का प्रतीत होता है वैसे ही Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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