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________________ ४१४ जिनवाणी-विशेषाङ्क अनुसार अपने आप मिलता है, उसके लिए किसी भी ईश्वर या देवी-देवता की आवश्यकता नहीं है। सिद्धियों के लिए देवी-देवताओं को सिद्ध करना पड़ता है तथा किसी अदृश्य शक्ति की सहायता के बिना यह कैसे संभव है, ऐसा कहना -जैन सिद्धान्त के सर्वथा विपरीत है। मेस्मरिज्म और हिप्नोटिज्म वाले किसी देवी-देवता में विश्वास नहीं करते, वे भी तो अनेक चमत्कार दिखाते हैं, उनमें वह शक्ति कहाँ से आती है ? परन्तु छद्मस्थों ने जिस प्रकार, सूर्य, चन्द्रमा आदि ग्रहों को खेंचने व ज्वार भाटा के लिए हजारों देवताओं की कल्पना कर डाली उसी प्रकार ऋद्धियों आदि का फल देने के लिए भी देवी देवताओं की कल्पना कर डाली। अस्तु यह मान्यता कि पद्मावती आदि शासन देव व अन्य धर्मों के देवी-देवता हैं और हमारे दुःख दूर कर सकते हैं व हमारी मनोकामनाएं पूरी कर सकते हैं, जैन धर्म के ही नहीं, वस्तुस्थिति के भी सर्वथा विपरीत है। एक विद्वान् बन्धु का यह लिखना भी सर्वथा मिथ्या है कि भगवान आदिनाथ ने श्मशान में जाकर तपस्या देव-सिद्धि के लिए की थी। जैन धर्मानुसार तो देव सिद्धि के लिए तपस्या करना, मन्त्रों की साधना करना तथा सांसारिक कामनाओं की पूर्ति के लिए धर्मध्यान करना मिथ्यात्व है। सम्यग्दृष्टि व्यक्ति जो भी धर्म साधना करता है, नि:कांक्षित भाव से करता है। सिद्धियाँ तो अपने आप आती हैं, परन्तु उसका लक्ष्य सिद्धियाँ प्राप्त करना नहीं होता। इस बात का तो और भी दुःख है कि जहाँ शासन देवों का अस्तित्व भी सिद्ध नहीं होता वहां उनके समर्थकों ने तांत्रिकों की नकल पर देवी-देवताओं को सिद्ध कर मारण-वशीकरण जैसे त्याज्य कार्य की साधना का भी विधान कर दिया। इस सम्बन्ध में बहुचर्चित 'लघु विद्यानुवाद' को देखें। (३) उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि शासन के व धर्मात्माओं के रक्षक देवी-देवताओं का कोई अस्तित्व नहीं है। व्यक्ति ध्यान, मन्त्र, जप की साधना व धर्म सेक्न करता है उसका फल भी तथा उससे प्राप्त हुई सिद्धि के उपयोग की क्षमता भी अपने आप प्राप्त होती है, उसके लिए भी किसी देवी-देवता की सहायता की आवश्यकता नहीं है। फिर भी जो बन्धु शासन देवताओं के अस्तित्व में विश्वास करते हैं उनसे मेरा प्रश्न है कि जन्म से ही अतुल्यबलशाली तीर्थंकरों पर मुनि अवस्था में उपसर्ग आए, भ. आदिनाथ को मुनि अवस्था में ६ मास तक आहार में अंतराय आया, सुकुमाल मुनि को सियालनी खाती रही व अन्य अनेक धर्मात्माओं पर संकट आये । चन्द्रगुप्त मौर्य के समय १२ वर्ष का अकाल पड़ा तब जैन धर्म व जैन साधुओं पर बड़ा भारी संकट आया। बाद में धार्मिक असहिष्णुता के समय में हजारों जैन मंदिर व मूर्तियाँ नष्ट कर दी गईं, जैन साधु जीतेजी घाणी में पिलवा दिये गए, अभी भी कलकत्ता में जैन मुनि पर उपसर्ग आया, पुरलिया कांड तथा कुंभोज बाहुबली कांड भी हुआ। यदाकदा अरहंत प्रतिमाओं की चोरियाँ होती रहती हैं, जिनके रक्षक शासन देव-देवी माने जाते हैं ; परन्तु न तो कभी किसी शासन देव-देवी ने आकर संकट दूर किया न ही मंत्र-तंत्र शक्ति द्वारा भक्तों की सांसारिक कामनाएँ पूरी करने का ढोंग करने वाले किसी साधु या तांत्रिक ने अपनी मंत्र-तंत्र शक्ति का चमत्कार दिखाया। अनेक व्यक्ति जीवनभर पद्मावती-क्षेत्रपाल की पूजा करते रहते हैं फिर भी दुःखी दरिद्री बने रहते हैं। जयपुर में लूनकरनजी के मंदिर में तो चोर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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